Monday, August 19, 2013

वंस अपान अ टाइम ..., विधा बुरा मान जाएगी


'नाम बता दिया, तो पहचान बुरा मान जाएगी', ये कह दिया, तो वो बुरा मान जाएगा जैसे संवादों की बहुलता के बीच शायद इस बात पर चिंतन नहीं किया गया कि यदि फिल्म में नाटक के तत्वों का अतिक्रमण कराया गया, तो फिल्म विधा बुरा मान जाएगी। एक के बाद एक आती पंच लाइनों के बाउंसर को कोई कब तक झेलेगा। मन उचाट होना स्वाभाविक है।
मिलन लुथरिया निर्देशित कथित रूप से गैंगस्टर फिल्म 'वंस अपान ए टाइम इन मुंबई दोबाराÓ के क्लाइमेक्स में प्यार की कच्ची खिचड़ी से पूरा जायका खराब होना ही था, हो भी गया। फिल्म में कुछ भी परवान चढ़ता नहीं दिखता। न ही गैंगों की शातिराना साजिशें और न ही रुहानी जज्बात। कहानी मुंबई के अपराध जगत में छाये दुबई में रहने वाले शोएब(अक्षय कुमार) के मुंबई में एक गुंडे रावल (महेश मांजरेकर) को मारने के लिए मुंबई आने और उसके गुर्गे असलम (इमरान खान) के इर्द गिर्द बुनी गई है। जेस्मिन (सोनाक्षी सिन्हा) के रूप में एक कोण प्यार का भी है, जिसके छोर डॉन शोएब और कारिंदे असलम से मिलकर दोनों के बीच संघर्ष को जन्म देते हैं। गाने केवल सुनने में ही अच्छे लगते हैं। प्यार और गुस्सा दोनों में इमरान खान के चेहरे का एक ही भाव दर्शकों को खटक सकता है। अक्षय कुमार अच्छे हैं, लेकिन उनके पल्ले पड़े अतिरिक्त संवाद उन्हें बहुरुपिया बनाते हैं। सोनाक्षी का वही रूप, वही अंदाज है, जैसा दर्शक उनकी पिछली फिल्मों में देख चुके हैं।  

Sunday, August 11, 2013

तर्कहीन 'चेन्नई एक्सप्रेस'


प्रातःकाल में प्रकाशित इस फिल्म की समीक्षा. 
यदि २५ साल का कोई युवक ४ साल के बच्चे जैसी इच्छा जताते अपने पिता से कहे, 'पापा आप घोड़ा बनिये, मुझे सवारी करनी है, तो निश्चित ही आप उसे पागल समझेंगे। ऐसा ही कुछ नजारा दिखता है रोहित शेट्टी निर्देशित फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' में,जिसमें ४० साल का राहुल (शाहरुख खान)टीनेजर जैसा अल्हड़पन दिखाते मौजमस्ती के लिए हर हाल में दोस्तों संग गोवा जाने के लिए बेकरार है। सवाल मस्ती और उम्र के बीच पैमाना मानने का नहीं है। बल्कि वे परिस्थितियां हैं, जिनके बीच अधेड़पन की ओर बढ़ते कदमों से बचकानी जिद्द झलकती है।
 राहुल अपनी दादी को झांसा देने दादा जी की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए उनकी अस्थियां रामेश्वरम में प्रवाहित करने मुंबई से चेन्नई एक्सप्रेसपकड़ कल्याण में उतर जाने की योजना बनाता है, लेकिन कल्याण में उतर नहीं पाता। अगर हम मान लें कि मौजमस्ती पसंद राहुल में किसी की भावनाओं के प्रतिसंवेदनशीलता का अभाव है, तो अगले ही पल उसमें इतनी दरियादिली कहां से आ गई कि वह एक-एक करके मीना (दीपिका पादुकोण)और उसका पीछा करते उसके चचेरे भाइयों को छूटती गाड़ी पकड़वाने में सहयोग देते खुद उतरना ही भूल गया। और हां वह पागल भी नहीं है, क्योंकि उसे इस बात का पूरा अहसास है कि दादा-दादी के प्यार ने उसे कभी अपने मां-बाप की कमी नहीं महसूस होने दी। ऐसे में आपका दिमाग चकरा जाएगा, लेकिन आप इस राहुल की एक निश्चित परिभाषा नहीं दे पाएंगे।
कहानी के नाम पर दबंग पिता द्वारा अपनी मर्जी के खिलाफ शादी करा देने के डर से भागी मीनाकी मदद में आये राहुल के मुसीबतों में फंसने, सकुशल निकलने और दोनों में प्यार होने की बकवास है।फिल्म में दीपिका के लिए अधिकांश तमिल भाषा के संवाद बोलने और उससे अपने चेहरे के भाव-भंगिमा का सामंजस्य बिठाने जैसीकुछ चुनौतियां जरूर हैं, जिसमें वह सफल भी दिखती हैं। हास्य के लिए शाहरूख खान की हिट फिल्मों के संदर्भ का सहारा नये काम के प्रतिआत्मविश्वास की कमी को ही दिखाता है। ट्रेलर के दौरान बेहद प्रसिद्ध हुए संवाद 'कहां से खरीदी है ऐसी बकवास डिक्शनरी' फिल्म के बीच एक अच्छे संवाद के लोभमें थोपा गया संवाद लगता है। पूरी फिल्म में देखने लायक कुछ बेहद सुंदर लोकेशंसही हैं, जो दिल को बरबस ही लुभा लेते हैं। वर्ना दर्शकों के लिए तमिल भाषा की बहुलता के बीच पहेली बूझने जैसी स्थित है। एक -दो गाने अच्छे हैं।          

Sunday, August 4, 2013

ओछी नहीं अच्छी फिल्म है 'बी.ए. पास'


 'बी.ए. पास' एक ऐसी कहानी है, जिसमें दो बहनों सहित प्रतिकूल परिस्थितियों के सैलाब में फंसा एक युवा जिस सहारे का आलंबन लेता है, वही आलंबन उसकी जिंदगी को सैलाब से निकाल भयंकर तूफान के हवाले कर देता है । अगर एक वाक्य में फिल्म का मूल्यांकन करें तो इसका प्लॉट 'बुरे काम का बुरा नतीजा' की अवधारणा है। 
निर्देशक अजय बहल की ' बी.ए. पास' सेंसर बोर्ड से वयस्कों के लिए निर्धारित है। ऐसी फिल्मों के सार्वजनिक प्रदर्शन को हमारे समाज में घटिया श्रेणी में रखा जाता है। किन्तु यह फिल्म एक साथ कई सामाजिक पहलुओं को बड़ी शिद्दत से उजागर करती है। अपने माता-पिता के निधन के बाद बी.ए. का छात्र मुकेश(शादाब कमल)दो बहनों के साथ अपनी बुआ के घर रहता है, जहां उसके हिस्से घरेलू काम और फुफेरे भाई के ताने ही आते हैं । आर्थिक तंगी के कारण दोनों बहनों को सरकारी आश्रम में भेज दिया जाता है। मुकेश की बुआ के घर किटी पार्टी में आयी सारिका (शिल्पा शुक्ला) मुकेश को बहाने से अपने घर बुलाती है और उसको अपने असंतुष्ट वैवाहिक संबंधों का विकल्प बना लेती है। मुकेश की जरूरत के पैमाने समझ सारिका मुकेश को अपनी सहेलियों के लिए उपलब्ध रहने का प्रस्ताव देती है, जिसे न चाहते हुए भी वह स्वीकार कर लेता है और धीरे-२ वह पुरुष वेश्या बन जाता है। आगे सारिका के पति द्वारा मुकेश को अपने पत्नी के साथ रंगे हाथों पकड़े जाने के बाद उसकी जिंदगी में आये भूचाल से दर-दर भटकने की कहानी है। फिल्म का अंत बेहद असरकारक है,जिसमें वार्डन से परेशान आश्रम छोड़ भाई के यहां आती बहनों के फोन और पीछा करती पुलिस के साइरन के शोर के बीच मुकेश अपनी जिंदगी की आवाज को हमेशा के लिए शांत करने का रास्ता चुन लेता है। 
प्रारंभ से अंत तक फिल्म एक घटना से दूसरी घटना में एक चेन की तरह परस्पर जुड़ी हुई आगे बढ़ती है, जिससे दर्शक घटनाओं के साथ चुपचाप बहते चले जाते हैं। यहां तक कि कई कामुक दृश्य होने के बावजूद भी थियेटर में कभी सीटी बजने की आवाज नहीं आती। क्योंकि वे सीन मौजमस्ती से ज्यादा एक बेबस की मजबूरी लगते हैं। बिना गीत की इस फिल्म में शादाब ने हालात के मारों का सफलतापूर्वक प्रतिनिधित्व किया है, तो शिल्पा शुक्ला ने इतने बोल्ड पात्र में अपनी अदाओं से कई आयाम दिये हैं, जिसमें कभी बिंदासपन, तो कभी समझदारी का बढिय़ा सामंजस्य झलकता है।