Monday, December 22, 2014
Tuesday, December 9, 2014
Friday, October 17, 2014
रोमन में लिखा संवाद फाड़ देता हूं : अमिताभ बच्चन
रोमन में लिखा संवाद फाड़ देता हूं : अमिताभ बच्चन
अपने ७२ वें जन्मदिन पर बिग बी ने अपने बंगले पर अति व्यस्तता के बीच बातचीत में सिनेमा, समाज, सोशल मीडिया और हिंदी के विषय में अपनी राय रखी। साथ ही हिंदी सिनेमा की कुछ विशिष्टताओं का भी जिक्र किया, जिनके कारण दुनिया में हमारी पहचान बनी हुई है।
-जन्मदिन पर पीछे मुड़कर कुछ देख रहे हैं?
क्या देखना है पीछे मुड़कर। ज्यादातर मैं पीछे नहीं देखता। जो बातें हैं, वो सभी को मालूम हैं। हां पीछे देखना होगा तो माँ-बाबूजी की कुछ यादें हैं, जिनमें उनसे कुछ सीखा है, वो आज भी प्रोत्साहन देती हैं। आज आराध्या है, पोती-पोते का होना अपने आप में एक अलग जीवन होता है। उनके साथ रहने की एक बेताबी रहती है। उनके साथ समय बिताना अच्छा लगता है।
-सोच प्रभावित करने में फिल्मों की क्या भूमिका है?
मेरे बाबूजी रोज शाम को ड्राइंग रूम में फिल्म देखते थे। मैं पूछता था कि आप रोज सिनेमा क्यों देखते हैं ? तो उन्होंने कहा कि यहां तीन घण्टे के अंदर सत्य और असत्य, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, सब कुछ पता चल जाता है। यही प्रबलता है भारतीय सिनेमा की। यहां रिश्तों की बात होती हैै। किसी फिल्म द्वारा सोच प्रभावित होने का एक उदाहरण बताना चाहूंगा। 'बागबानÓ की रिलीज के एक हफ्ते बाद रवि चोपड़ा के यहां रात के तीन बजे लंदन से एक भारतीय युवक ने फोन कर कहा कि मैं अभी-अभी 'बागबानÓ देखकर निकला हूं। मैं और मेरे पिता एक ही शहर में रहते हैं। किन्हीं कारण वश मैं पिछले २५ सालों से उनसे नहीं मिला हूं। लेकिन अभी मैं अपने पिता को फोन कर उनसे माफी मांगने जा रहा हूं। इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है।
-ब्लॉग पर अपनी सक्रियता को जिम्मेदारी मानते हैं ?
जिम्मेदारी कोई नहीं है। किसी ने हमें बताया कि आपके नाम की १००-२०० वेबसाइटें खुली हुई हैं। लेकिन उसमें असली कोई नहीं है। इसी चर्चा में मुझे ब्लॉग का सुझाव मिला और फिर शुरू हो गया यह सिलसिला, जो आज एक परिवार बन गया है। ब्लॉग पर बिना रुके लिखते २०७० दिन हो गये हैं। अस्पताल गया तो भी लिखा । अब डर सा हो गया है कि अरे यार आज ब्लॉग नहीं लिखा, जल्दी चलो वो इंतजार करते होंगे। कभी यदि थोड़ी देर हो जाती है, तो वो लिखकर मुझे भेजते हैं कि क्या हुआ भाई साहब, सो गये हैं क्या ? तो इस तरह का एक रिश्ता बन गया है।
-क्या सोशल मीडिया के कारण फिल्म को वस्तुनिष्ठ रखने का दबाव बढऩे वाला है? क्योंकि यदि 'हैदरÓ अगर १० साल पहले आती, तो इसका विरोध इतना व्यापक रूप नहीं ले पाता।
-हां अब ये सारी चीजें होंगी ही। क्योंकि अब माध्यम काफी बढ़ गया है। बहुत से ऐसे स्थान हैं, लोग हैं, जिनके बारे में हम नहीं जानते थे। वहां के लोगों की सोच के बारे में हमें पता नहीं चल पाता था। लेकिन सोशल साइट के रूप में आज हर इंसान को एक माध्यम मिल गया है, जिस पर वो अपनी बात को व्यक्त कर सकता है। ये अलग बात है कि हमेशा वो सही न हो। फिर आप लोग भी हैं, जो उस बात को पकड़ लिये, तो आप लोगों के ऊपर है कि उसकी बात को बढ़ावा दें या न दें। पहले केवल आप पत्रकारों के माध्यम से जानकारियां मिलती थी, लेकिन आज प्रत्येक इंसान महत्वपूर्ण हो गया है।
अपनी इमेज को लेकर अतिरिक्त सावधान रहे हैं ?
-इमेज क्या होती है? मैं इमेज के बारे में कभी नहीं सोचता और न ही इसे मानता हूं। सब अपना काम करते हैं। सब अपनी तरह से अपनी जिंदगी जीते हैं।
क्या हिंदी के प्रचार में फिल्म की भूमिका सर्वश्रेष्ठ है?
-मेरे ख्याल से भाषा के प्रचार का पूरा श्रेय केवल एक ही माध्यम को देना सही नहीं है। मैं तो मानता हूं कि आपका माध्यम भी इसमें काफी सहायक है। मुझे आज भी कुछ सीखना होता है, तो अखबार पढ़ता हूं। संपादकीय पृष्ठ पर अलग दृष्टिकोण मिलता है। हिंदी के संदर्भ में देवनागरी को लेकर एक संकट देख रहा हूं। आज कल फिल्मों के सेट पर अक्सर संवाद रोमन में लिख कर दिये जा रहे हैं। मुझे जब भी रोमन में लिखा संवाद मिलता है, मैं तुरंत उसे फाड़ कर फेंक देता हूं । मैं कहता हूं, भइया हमको हमारा डायलाग दो। ये हमारी समझ में नहीं आ रहा । हालांकि मैं पढ़ सकता हूं, लेकिन जो बात देवनागरी में लिखने से आती है, उसकी अलग ही बात है। चंद्र बिंदु अंग्रेजी में कहां है ? तो जो उसमें है ही नहीं उसे हम बोलेंगे कैसे? प्रोडक्शन वालों में मुझको लेकर एक डर हो गया है। वो पहले से ही मुझे हिंदी में संवाद देने की तैयारी में रहते हैं।
हॉलीवुड की फिल्मों के यहां आगमन को किस रूप में देखते हैं?
-हॉलीवुड की फिल्में अपने साथ एक संकट लेकर चलती हंै। वहां की फिल्में जहां जाती हैं, स्थानीय फिल्म इंडस्ट्री को खत्म कर देती हैं। लेकिन हमारी कुछ सांस्कृतिक विशेषताएं हैं, जिसके कारण हमारी इंडस्ट्री हमेशा आबाद रहेगी। वो 'टाइटेनिकÓ बना सकते हैं, रोबोटिक फिल्में बना सकते हैं। लेकिन कोई कल्चरल फिल्म बनाकर दिखाएं? कोई इमोशनल फिल्म बनाकर दिखाएं? वो इसमें हमारी बराबरी नहीं कर सकते। पश्चिम के जो लोग कभी हमारी फिल्मों की निंदा करते थे,आज हमारे प्रशंसक बने हुए हैं। मुझे याद है जब ३० साल पहले हम विदेशों में शूट के लिए जाते थे, तो वहां हमें अजीब तरह की आलोचना सुननी पड़ती थी कि क्या नाच-गाना करते हैं। लेकिन अब देखिये दुनिया भर में जितने फिल्म फेस्टिवल होते हैं, वहां भारतीय फिल्मों का नाम आता है। उसके आयोजक महीनों पहले यहां आकर जानकारियां लेते हैं और निमंत्रण देते हैं।
Monday, October 6, 2014
Thursday, July 3, 2014
Saturday, June 14, 2014
Monday, June 2, 2014
फिल्म समीक्षा : 'सिटी लाइट्स'
ग्रामीण और छोटे शहरों के युवकों को रोजगार के लिए महानगर संभावनाओं का एक सुनहरा लोक नजर आता है। अपने परिवार की आजीविका के लिए ये लाचार युवक थोड़े से पैसे और बहुत ज्यादा ईमानदारी, कर्मठता और सरलता लिए महानगरों में आ जाते हैं। लेकिन उन्हें क्या पता कि बड़े शहरों की ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों में रहने वालों का जमीर कितना नीचा होता है। फलस्वरूप पहले केवल आर्थिक परेशानियों का सामना करता युवक महानगरों में आकर अपने स्वाभिमान, अपने पूरे अस्तित्व को मटियामेट होते देखते रहने को अभिशप्त होता है। यही कहानी है हंसल निर्देशित फिल्म 'सिटी लाइट्सÓ की।
राजस्थान के पाली जिले में भारी कर्ज में कपड़े की दुकान चलाता दीपक सिंह (राजकुमार राव)अच्छी जिंदगी का ख्वाब सजा रोजगार के लिए पत्नी राखी (पत्रलेखा)और छोटी सी बेटी को लेकर मुंबई आता है। मुंबई आते ही रहने के लिए मकान दिलाने के नाम पर ठगी का शिकार होता है। दीपक बीवी-बच्ची के साथ सड़क पर रात बिताता है। एक बार डांसर के सहयोग से उन्हें निर्माणाधीन बिल्डिंग में १०० रुपये रोज पर रहने का ठिकाना मिलता है। काम के लिए दर-दर भटकते दीपक को सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी मिलती है। आर्थिक जरूरतें और अपने संस्कार के दोराहे पर खड़ी राखी बार डांसर बन जाती है।
फिल्म सुपरवाइजर विष्णु (मानव कौल) और दीपक के आपसी वार्तालाप के माध्यम से अमीरों की संवेदनहीनता की एक-एक परत उघेड़ती है। हंसल मेहता ने अपनी पिछली फिल्म 'शाहिदÓ की तरह ही परिस्थितियों की मार्मिकता दिखाने के लिए लम्बे-लम्बे साइलेंट दृश्य रखे हैं। उनके इस प्रयास को राजकुमार राव ने अपने शानदार अभिनय से वास्तविकता का रूप दे दिया है। बीवी के बार डांसर होने का पता चलने पर पति-पत्नी के ऊंकड़ू मार बैठ रोने का दृश्य लाचारगी की बेहतरीन अभिव्यक्ति है।
पटकथा काफी चुस्त लिखी गई है, लेकिन राखी के बार डांसर बनने की प्रक्रिया को तर्कसंगत बनाने की गुंजाइश दिखती है। पहले हाफ में सच्चाई के बेहदकरीब दिखती फिल्म मध्यांतर बाद कुछ नाटकीयता का लबादा ओढ़ लेती है। पृष्ठभूमि से बजते गाने हालात को बयां करते हैं। अभिनय की बात करें तो राजकुमार राव अपने श्रेष्ठ रूप में दिखते हैं, तो पत्रलेखा और मानव कौल भी अपनी छाप छोडऩे में सफल लगते हैं।
स्टार : ४
प्रातःकाल में प्रकाशित
Thursday, May 22, 2014
Monday, May 12, 2014
Tuesday, April 29, 2014
Friday, April 25, 2014
Monday, April 7, 2014
बिल्कुल मसाला फिल्म है 'मैं तेरा हीरो Ó
स्टार : तीन
यदि आप फिल्म देखते कार्य और कारण में विश्वसनीयता की अपेक्षा किये बगैर और अपना दिमाग लगाये बगैर निर्देशक डेविड धवन जो दिखा रहे हैं, उसे वैसे ही देखते रहने के लिए तैयार हैं, तो निश्चित मानिये 'मैं तेरा हीरोÓ आपको बोर नहीं करेगी। फिल्म में कहानी के अलावा सबकुछ है। नृत्य और गानों की ऐसी रवानी, जो अपनी रौ में सबको बहा ले जाये, जहां क्लास वगैरह के पैमाने बेमतलब हो जाते हैं। कर्णप्रियता और थिरकन अपनी मोहपाश में सबकों बांध लेते हैं। इस मामले में एक समय गोविंदा का कॉपी राइट लगता था। कहने का तात्पर्य है, ' मैं तेरा हीरोÓ बिल्कुल मसाला फिल्म है। यहां भगवान भी बोलते हुए दिखते हैं।
पढ़ाई में बार-बार फेल होने वाले मस्तमौला सीनू (वरुण धवन )से उसके अध्यापक सहित पूरा शहर परेशान है। सीनू पढ़ाई के लिए बंगलौर जाता है, जहां वह उसी कॉलेज की छात्रा सुनयना(इलियाना डिक्रूज) पर मर मिटता है। सुनयना का एक तरफा प्रेमी है खूंखार डीसीपी अंगद (अरुणोदय सिंह)है, जिसके डर से कॉलेज का कोई लड़का सुनयना के पास भी नहीं फटकता। सुनयना को पाने सीनू और अंगद की कोशिश दिखाते फिल्म में सुनयना के अपहरण के साथ एक नया मोड़ आता है। सीनू की जांबाजी की कायल आयशा (नर्गिस फाखरी) सीनू से शादी करना चाहती है। उसकी इच्छा पूरी करने उसका गैंगस्टर पिता विक्रांत(अनुपम खेर)सुनयना का अपहरण करवा लेता है। अंगद और सीनू विक्रांत के यहां पहुंचते हैं, जहां विक्रांत, सीनू और अंगद में शह और मात का खेल चलता है और फिल्म का सुखांत होता है। फिल्म के इसी हिस्से में सबसे ज्यादा हास्य उड़ेला गया है।
मासूम से दिखते वरुण धवन की चपलता दर्शक का मनोरंजन करती है। उसकी मासूमियत इतनी शुद्ध लगती है कि एक सीन में जब वह खुद के बड़े हरामी होने की बात बताता है, तभी संबंधित पात्र के साथ-साथ दर्शक को भी उसकी हरामियत पर ध्यान जाता है। पहले हाफ में खलनायक से मध्यांतर बाद साइड हीरो लगते अरुणोदय सिंह बेहद प्रभावित करते हैं। इलियाना और नर्गिस के हिस्से नाच-गाने के अलावा कुछ था ही नहीं, जिसमें दोनों ने अपने को खूब दिखाया है। अनुपम खेर, सौरभ शुक्ला और राजपाल यादव के कारण ही हास्य की मंशा सफल लगती है।
यदि आप फिल्म देखते कार्य और कारण में विश्वसनीयता की अपेक्षा किये बगैर और अपना दिमाग लगाये बगैर निर्देशक डेविड धवन जो दिखा रहे हैं, उसे वैसे ही देखते रहने के लिए तैयार हैं, तो निश्चित मानिये 'मैं तेरा हीरोÓ आपको बोर नहीं करेगी। फिल्म में कहानी के अलावा सबकुछ है। नृत्य और गानों की ऐसी रवानी, जो अपनी रौ में सबको बहा ले जाये, जहां क्लास वगैरह के पैमाने बेमतलब हो जाते हैं। कर्णप्रियता और थिरकन अपनी मोहपाश में सबकों बांध लेते हैं। इस मामले में एक समय गोविंदा का कॉपी राइट लगता था। कहने का तात्पर्य है, ' मैं तेरा हीरोÓ बिल्कुल मसाला फिल्म है। यहां भगवान भी बोलते हुए दिखते हैं।
पढ़ाई में बार-बार फेल होने वाले मस्तमौला सीनू (वरुण धवन )से उसके अध्यापक सहित पूरा शहर परेशान है। सीनू पढ़ाई के लिए बंगलौर जाता है, जहां वह उसी कॉलेज की छात्रा सुनयना(इलियाना डिक्रूज) पर मर मिटता है। सुनयना का एक तरफा प्रेमी है खूंखार डीसीपी अंगद (अरुणोदय सिंह)है, जिसके डर से कॉलेज का कोई लड़का सुनयना के पास भी नहीं फटकता। सुनयना को पाने सीनू और अंगद की कोशिश दिखाते फिल्म में सुनयना के अपहरण के साथ एक नया मोड़ आता है। सीनू की जांबाजी की कायल आयशा (नर्गिस फाखरी) सीनू से शादी करना चाहती है। उसकी इच्छा पूरी करने उसका गैंगस्टर पिता विक्रांत(अनुपम खेर)सुनयना का अपहरण करवा लेता है। अंगद और सीनू विक्रांत के यहां पहुंचते हैं, जहां विक्रांत, सीनू और अंगद में शह और मात का खेल चलता है और फिल्म का सुखांत होता है। फिल्म के इसी हिस्से में सबसे ज्यादा हास्य उड़ेला गया है।
मासूम से दिखते वरुण धवन की चपलता दर्शक का मनोरंजन करती है। उसकी मासूमियत इतनी शुद्ध लगती है कि एक सीन में जब वह खुद के बड़े हरामी होने की बात बताता है, तभी संबंधित पात्र के साथ-साथ दर्शक को भी उसकी हरामियत पर ध्यान जाता है। पहले हाफ में खलनायक से मध्यांतर बाद साइड हीरो लगते अरुणोदय सिंह बेहद प्रभावित करते हैं। इलियाना और नर्गिस के हिस्से नाच-गाने के अलावा कुछ था ही नहीं, जिसमें दोनों ने अपने को खूब दिखाया है। अनुपम खेर, सौरभ शुक्ला और राजपाल यादव के कारण ही हास्य की मंशा सफल लगती है।
Thursday, March 6, 2014
Monday, February 24, 2014
फिल्म समीक्षा : हाइवे
हाईवे की समीक्षा लिखते अनिर्णय की स्थिति आ गई है कि पाठकों को घटना में लडख़ड़ाहट का हवाला दूं या हृदयविदारक सच्चाई से रू-ब-रू होने की सलाह। इम्तियाज अली निर्देशित यह फिल्म टुकड़ों में समाज के कईबेहद संवेदनशील व्यवहारिक पहलुओं को उजागर करती है। फिल्म का मुख्य तत्व अभिजात्य वर्ग के दिखावटी सभ्यता का खोखलापन है, जिससे परेशान होकर उस परिवार की लड़की घर से भागती है। लेकिन इस क्रम में इसका ताना बाना बिखर गया है। कुछ संवाद 'गागर में सागरÓ की उक्ति को चरितार्थ करते हैं। जैसे- 'जहां से तुम मुझे ले आये हो, वहां लौटना नहीं चाहती और जहां ले जाना चाहते हो, वहां पहुंचना नहीं चाहतीÓ, ' एक गोली दो जान लेती है। जिस पर चलती है और जिससे चलती है, दोनों कीÓ , 'अच्छे से बात करनाÓ अपने अंदर बहुत विस्तृत व्याख्या लिये हुए हैं।
अमीर एमके त्रिपाठी की बेटी वीरा त्रिपाठी (आलिया भट्ट)की शादी होने वाली है। शादी की तैयारियों के बीच खुली हवा में कुछ क्षण बिताने के लिए अपने मंगेतर से जिद कर रात को हाइवे पर निकलती है, जहां से महावीर भाटी (रणदीप हूड़ा)अपने गैंग के साथ उसका अपहरण कर लेता है। वीरा की पहचान जान अपहरणकर्ता उसके राजनीतिक-आर्थिक रूप से ताकतवर पिता से बचने के लिए एक जगह से दूसरी जगह भागता है। भौतिक सुविधाओं में रहने वाली वीरा को विशुद्ध प्रकृतिकी आबो हवा काफी रास आती है और वह इस सफर को लुत्फ के रूप में लेने लगती है। अपहरणकर्ता महावीर भाटी अब उसे हमराह नजर आता है। दूसरी तरफ महावीर की बेरूखी का बर्फ वीरा की निश्छलता से पिघलती है।
फिल्म खासकर लड़कियों के पालन-पोषण और उनकी सुरक्षा पर प्रकाश डालते यौन शोषण के मामलों के सबसे बड़े सुरक्षा कवच 'किसी से कुछ ना कहनाÓ को नंगा करती है। जब वीरा सबके सामने अपने ही चाचा द्वारा अपने यौन शोषण की व्यथा सुनाती है। 'हाइवेÓ का सबसे मजबूत पक्ष कलाकारों का अभिनय और इसकी सिनेमेटोग्राफी है। उन्मुक्तता और आक्रोश के मनोभावों को व्यक्त करतेआलिया भट्ट और हृदय परिवर्तन के दृश्यों में रणदीप हूड़ा काफी प्रभावित करते हैं। सिनेमेटोग्राफी इतनी सुंदर है कि फिल्म देखते स्क्रीन भी कुछ बड़ी लगने लगता है। गीत-संगीत विषय को गति देते हैं।
Monday, February 17, 2014
Monday, January 13, 2014
हर युग में बेगम पारो
www.pratahkal.com |
अभिषेक चौबे निर्देशित फिल्म 'डेढ़ इश्किया' २०१० की 'इश्किया' का सीक्वल होते हुए भी कथानक की दृष्टि से एक पूर्ण फिल्म लगती है। अगर बारीकी से देखें, तो फिल्म की थीम है 'अपने नजरिये से अपना मूल्यांकन।' इसी की छटपटाहट दो पात्रों इफ्तेखार(नसरुद्दीन शाह) और बेगम पारो (माधुरी दीक्षित नेने)में दिखती है। नृत्य और गायन की शौकीन बेगम पारो जुआ और शराब की लत वाले स्त्री से बेपरवाह पति, जो सारी सम्पत्ति गिरवी रख गया है, के निधन के बाद अपनी आजादी की जद्दोजहद करती है। यदि बेगम पारो के पूरे जीवन का विहंगावलोकन किया जाय, तो कई परतें खुलती जाएंगी और हर परत में एक पीड़ा दिखेगी, जिसकी मौजूदगी हर युग में दिखती रही है। वहीं अपनों के लिए जीते आ रहे इफ्तेखार की इच्छा अब अपने लिए की है। इफ्तेखार और बब्बन (अरशद वारसी) एक हार चोरी कर भागते अलग हो जाते हैं। इफ्तेखार नवाब का भेष बना महमूदाबाद की बेगम पारो के मुशायरे में शामिल होता है,जहां पारो को सर्वश्रेष्ठ शायर को अपना शौहर चुनना है। पारो के प्यार में दीवाना इफ्तेखार अपना भेद खुलने की भी परवाह नहीं करता, तो कभी मासूमियत में सच्चाई बताने की कोशिश भी करता है। जान मोहम्मद (विजय राज),जिसके यहां पारो की संपत्ति गिरवी पड़ी है, किसी भी कीमत पर पारो को पाना चाहता है। इफ्तेखार को ढंूढ़ते बब्बन महमूदाबाद पहुंचता है, यहां उसे पारो की विश्वासपात्र मुनिया (हुमा कुरेशी) से प्यार हो जाता है। फैसले के दिन पारो जान मोहम्मद को चुनती है और पूर्व नियोजित प्लान के तहत जान मोहम्मद से रुपये निकलवाने के लिए बब्बन के हाथों अपना अपहरण करवाती है। अंतत: आजाद हो पारो मुनिया के साथ अपनी पसंद की जिंदगी शुरू करती है। संवाद सटीक और चुटीले हैं, लेकिन कालखंड की दृष्टि से संक्रमित हैं। इफ्तखार और पारो के बीच के संवाद पात्र और समयानुकूल तहजीब भरे उर्दू में हैं, जिसे समझने में युवा पीढ़ी को परेशानी हो सकती है। शायद इसी को ध्यान में रखकर स्क्रीन पर नीचे संवादों के अंग्रेजी अनुवाद की पट्टी रखी गयी है। दूसरी तरफ मुनिया-बब्बन के बीच आधुनिक मोबाइल की भाषा, तो इफ्तखार-बब्बर में टपोरी की भाषा का प्रयोग दिखता है। फिल्म में अभिनय का हिस्सा पूरे १०० अंक मांगता है। नसरुद्दीन शाह, माधुरी दीक्षित, अरशद वारसी, हुमा कुरैशी और विजय राज ने पात्र और अदाकारी को एकाकार कर दिया है। थियेटर से बाहर निकलने के बाद भी सभी कलाकार दर्शकों के दिमाग में मौजूद रहेंगे। गाने भी अच्छे हैं। मध्यांतर से पहले फिल्म कुछ धीमी लगती है, जिससे कुछ समय के लिए दर्शकों पर पकड़ कमजोर पड़ती है, किंतु बाद के घटनाक्रम की तेजी काफी उत्सुकता जगाती है। बब्बन के व्यक्तित्व में विरोधाभास दिखता है, क्योंकि वह जिस कार्य के लिए पश्चाताप की भाषा बोल रहा है, वही कार्य उसे पहले करते हुए दिखाया जा चुका रहता है।
-अश्वनी राय स्टार : साढ़े तीन
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