Tuesday, October 20, 2015

बहाने पुकारे भइया ...

बहाने पुकारे भइया 
ले लूँ तेरी बलइया 
अपने हाथ 
चाहे जहाँ तू जाए 
वहां मेरी दुआएं 
होंगी साथ 
ज्योति फैलाये सूरज जब तक गगन से 
उतनी उमर तेरी माँगू किशन से 
सूरज पर ग्रहण आये 
तुझ पर वो भी न आये 
कोई घात
जीवन में हर पल ख़ुशी महक हो 
माथे चमकता विजय का तिलक हो 
प्रभु से विनती है मेरी 
कीर्ति हो जग में तेरी 
रातों रात  

Sunday, October 11, 2015

अब लोगों पर अंधविश्वासी की तरह भरोसा नहीं करती : ऋचा चड्ढा



क्या अब आपका संघर्ष खत्म हो गया है ?
- संषर्ष तो अब भी चल रहा है। बस उसका रूप बदल गया है।  पहले ऑटो से संघर्ष कर रही थी और अब अपनी गाड़ी से करती हूं। पहले फिल्म पाने के लिए भाग दौड़ कर रही थी, अब अपने काम को नया आयाम देने में श्रम लगा रही हूं। फिल्म इंडस्ट्री में होना मतलब लाइफ टाइम के लिए संघर्ष में होना है। इसलिए ऐसा नहीं कह सकती कि कुछ फिल्मों की सफलता और प्रशंसा के बाद मेरा संघर्ष खत्म हो गया है। यहां हर फ्राइडे के बाद करियर का भविष्य निर्धारित होता है।

आपकी पहचान टुकड़ों में हुई है। बीच के समय में हौसला कैसे बनाए रखा ?
- 'ओए लकी  लकी ओए' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के बीच चार साल का गैप है। उसमें २००८ से २०१० तक का समय मेरे लिए काफी मुश्किलों भरा रहा। मेरे पास कोई काम नहीं था। उस दौरान मैंने अपने अंदर के कलाकार को जिंदा रखने के लिए थियेटर किये, नाटक किये। किसी काम को पाने का हौसला बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी है कि उसमें आपकी रुचि लगातार बनी रहे। इसके अलावा आपकी हॉबिज और आपसे जुड़े लोगों की भी भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जिससे आप निराशा में जाने से बच जाते हैं। मेरे मुश्किल दिनों में मेरे परिजनों का बड़ा सहयोग रहा। पैसे कम होने पर पैसे भेजे, मुझसे बातचीत में उन्हें कभी लगता था कि मैं  कुछ निराश हूं, तो वो मुंबई आ जाते थे।

'मैं और चाल्र्स' कैसी फिल्म है ?
- ये एक थ्रिलर फिल्म है। क्रिमिनल चाल्र्स की कहानी है कि कैसे वो लॉ स्टूडेंट मीरा की मदद से दो- चार कैदियों के साथ देश की सबसे सुरक्षित जेल तिहाड़ से भाग जाता है। उसके बाद पुलिसकर्मी अमोल चाल्र्स की जिंदगी में भाग दौड़ शुरू करता है। चाल्र्स गोवा में पकड़ा जाता है और फिर मुंबई में उसका सामना अमोल से होता है। इसमें यही दिखाया गया है कि कैसे घटनाओं की प्लाटिंग और उन्हें अनकवर किया गया है। मैं मीरा बनी हूं और चाल्र्स का किरदार रणदीप हुड्डा निभा रहे हैं।

ग्लैमर इंडस्ट्री में होकर भी ग्लैमरस हीरोइन की पहचान ना होने को लेकर कभी कसक होती है ?
- हां, कभी-कभी ये कसक उठती है। इसकी वजह ये है कि ग्लैमरस रोल की फिल्में करने के कारण आपके पास कमाई करने के कई रास्ते आ जाते हैं। कई शोज, अपियरेंस के मौके मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं ग्लैमरस रोल की फिल्में बिल्कुल ही नहीं कर रही हूं। लेकिन उसको लेकर बहुत बेचैन नहीं हुई जा रही हूं। 'मसान' की सफलता के बाद कई लोगों ने मुझसे पूछा कि आप बड़े बजट की कमर्शियल फिल्में क्योंनहीं करतीं। मैं उन सभी से कहना चाहती हूं कि 'मसान' जैसी मीनिंगफुल अच्छी फिल्में और करना चाहूंगी।

जब पहली बार अभिनेत्री बनने का ख्याल आया, तो क्यावो ग्लैमर का आकर्षण था ?
- बचपन से ही मुझे लग रहा था कि मैं अभिनेत्री बनने के लिए ही बनी हूं। मेरे मन में आकर्षण ग्लैमर को लेकर ना होकर सिनेमा को लेकर था कि वो कौन सी बात है, जो बनावटी होते हुए भी इतना असरदायी है। ये बच्चे से लेकर बड़े तक सभी जानते हैं कि जो पर्दे पर दिख रहा है, वह बनाया हुआ है। फिर भी सभी उससे जुड़ जाते हैं।


फिल्म इंडस्ट्री में कभी ठगे जाने का अहसास हुआ ?
— हां, ये अहसास कई तरह के हैं। जैसे कुछ लोगों ने कोई काम देने का भरोसा देकर लटकाए रखा, लेकिन वो कोरा आश्वासन ही साबित हुआ। स्ट्रगल के दिनों में ऐसे कटु अनुभन होते रहते हैं। लेकिन यही अहसास हमें परिपक्व बनाते हैं।
अब मैं लोगों पर अंधविश्वासी की तरह भरोसा नहीं करती हूं।

   

Friday, October 2, 2015

हमारा समाज भगोड़ा है : लव रंजन



2011 में आई फिल्म 'प्यार का पंचनामा' के जरिये लड़का -लड़की के आधुनिक संबंधों को लेकर एक नयी बहस की शुरुआत करने वाले निर्देशक लव रंजन 'प्यार का पंचनामा २' लेकर आ रहे हैं।  फिल्म के प्रमोशन के दौरान हुई मुलाकात में उन्होंने फिल्म और समाज सहित कई मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी।  प्रस्तुत है प्रमुख अंश -  

सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है जिसके लिए 'प्यार का पंचनामा २' देखनी चाहिए ?
- 'प्यार का पंचनाम' की खासियत यह है कि ये वो बात कहती है, जो कोई और नहीं कहता। आदमी औरतों को कैसे परेशान करता है, इस पर कई फिल्में बनी हैं। लेकिन महिलाएं किस तरह पुरुषों को तंग करती हैं इसे केवल 'प्यार का पंचनामा' दिखाती है। 'प्यार का पंचनामा २' पहले से ज्यादा मजेदार है। मैंने इसे बहुत संजीदगी के बजाय मजाक में दिखाया है कि भाई देखो ऐसा भी होता है। इसके किरदार लोगों को कनेक्ट करेंगे। फिल्म की घटनाएं देखकर हर एक को लगेगा कि हां यार मेरे साथ या मेरे दोस्त के साथ ऐसा ही हुआ है। मेरा दावा है कि आप हंसते रहेंगे और आपको पता नहीं चलेगा कि फिल्म कब खत्म हो गयी। आपकी कोई दोस्त होगी या बीवी होगी तो यह फिल्म दिखाकर यह बताने का मौका मिल जाएगा कि देखो ये कई सारे बातें हैं, जो मैं तुमसे नहीं कह पाता था। अब समझ भी जाओ और मुझे हैरान-परेशान करना छोड़ दो।

'प्यार का पंचनामा'  आने के बाद आपको महिला विरोधी कहा गया। कुछ कहना चाहेंगे ?
- माफी के साथ कहना चाहूंगा कि हमारा समाज जो है, वो एक भगोड़ा किस्म का समाज है। इससे ज्यादा भगोड़ा मैंने दुनिया में कहीं नहीं देखा। यह समाज किसी चुनौती पर बहस करने को तैयार होने के बजायअपनी सुविधानुसार रास्ता पकड़ निकल पड़ता है। मैंने एक बहस की शुरुआत की। मेरी दूसरी फिल्म 'आकाशवाणी' किसी ने नहीं देखी। वो तो पूरी तरह से लड़कियों के ऊपर थी कि पढ़ी-लिखी लड़कियां भी किस तरह मां-बाप के कहनेपर शादी कर लेती हैं। तब तो मुझे किसी ने फेमिनिस्ट, लड़कियों का शुभ चिंतक नहीं कहा। देखिये कोई भी फिल्मकार कल्पना से फिल्में बनाता है। ये उसका रचना पक्ष होता है। उसे किसी के निजी व्यक्तित्व से जोडऩा मैं सही नहीं मानता। मैं ऐसी बातों से विचलित नहीं होता। जो बातें पीढिय़ों से चली आ रही हैं, उसे टूटने में समय लगेगा। जैसे तराजू के एक पलड़े में कुछ पहले से रखा है और दूसरे को भी बराबर करने के लिए हम उसमें कुछ रखते हैं, तो वो एकाएक बराबर नहीं हो जाता। पहले वो झूलता है। मैं आशान्वित हू कि एक दिन ऐसा समय आएगा। क्योंकि समानता तो होनी ही चाहिए। 

'प्यार का पंचनामा'  से पार्ट २ में समानता और भिन्नता क्या है ?
- समानता सुर की है, आत्मा की है और मुद्दे की है। तीनों किरदार नये हैं और उनकी कहानियां भी अलग हैं। 'प्यार का पंचनामा' के मध्यांतर बाद मैं कुछ ज्यादा संजीदा हो गया था। लेकिन इस बार मैंने थोड़े हल्के तरीके सेमनोरंजक रूप से बातें कही है। ताकि किसी को कुछ चुभे नहीं। मैंने हंसते-हंसते सारी बातें कहने की कोशिश की है।

 पार्ट १ की बड़ी सफलता आज आपके लिए दबाव है या चुनौती ?
- उम्मीद है। उसका कारण है कि पार्ट वन जब आया था, तब कोई न तो मुझे जानता था और न ही उस फिल्म को। 'प्यार का पंचनामा' के रिलीज के बाद तुरंत लोग देखने भी नहीं आये। देखकर आये लोगों ने औरों के इसके बारे में बताया तब फिल्म लंबे समय तक थियेटरों में लगी रहकर हिट हुई। लेकिन इस बार लोग मुझे और 'प्यार का पंचनामा २' दोनों के बारे में जान गये हैं। लोगों में इसको लेकर उत्साह है, तो मैं यही कहूंगा कि मुझे उम्मीद है कि दर्शक ये फिल्म देखने जरूर आएंगे।
चार साल बाद 'प्यार का पंचनामा' का सिक्वल बनाने का कारण सफलता को लेकर कोई रिस्क से बचना तो नहीं रहा ? क्योंकि आप एक मजबूत आधार पर चल रहे हैं...
- ये बात पहले से ही थी। बस हमारा स्टैंड ये था कि हम बैक टु बैक नहीं बनाना चाहते थे। हम बीच में कुछ और बनाना चाहते थे।  इसमें चार क्यापांच साल भी लग सकते थे। फिल्म लाइन में सब कुछ आपके हाथ में नहीं होता। कई कारणों से काम लटक जाता है। सबसे जरूरी बात आपके पास स्क्रिप्ट होनी चाहिए और स्क्रिप्ट के बारे तो कोई निश्चित फार्मूला नहीं होता। यह ३० दिन में भी पूरा हो जाएगा और ६ महीने भी लग सकते हैं। ऐसे में जब तक आपके हाथ में पूरी तरह से तैयार स्क्रिप्ट नहीं आ जाती आप फिल्म बनाने के बारे में कैसे सोच सकते हैं। यही तो मुख्य आधार है। 

पार्ट वन की सफलता में उसके संवादों का बड़ा योगदान रहा। आप संवादों से दर्शकों को बांधने में ज्यादा यकीन करते हैं या सिचुएशन से प्रभावित करने में ?
- मेरा मानना है कि अगर आप दोनों में से किसी पर कम और ज्यादा ध्यान रखते हैं, तो आप फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। यदि मैं सिर्फ संवादों से दर्शक को बांधने की कोशिश करुंगा, तो हो सकता है उन्हें हंसी आ जाए, लेकिन उससे असरदायी मनोरंजन नहीं हो सकता। आपको मजा संवादों से आता है, लेकिन कनेक्टिविटी सिचुएशन और किरदारों से आती है। इस लिए जैसे दर्शक को बांधने के लिए अच्छे संवाद की जरूरत है, उसी तरह उन्हें प्रभावित करने के लिए सिचुएशन भी महत्वपूर्ण है। अपवाद स्वरूप ऐसा हो जाता है कि अच्छी सिचुएशन औसत संवाद को संभाल लेती है और कभी संवाद इतने सटीक होते हैं कि अपनी रवानी में दर्शकों को बहा ले जाते हैं, जिससे सिचुएशन की कमी छिप जाती है।

आपकी सभी फिल्मों में कार्तिक और नुशरत रहे हैं। इन पर इतना भरोसा का कारण क्या है ?
- 'प्यार का पंचनामा' में तो ये दोनों भी अन्य छह कलाकारों की तरह मेरे कास्टिंग डायरेक्टर के जरिये आये थे। फिर उसके बाद इनके साथ एक कम्फर्ट लेबल आ गया। दोनों ही मेहनती और अच्छे कलाकार हैं। दोनों वक्त देने के लिए तैयार रहते हैं। मेरे लिए कमिटमेंट बहुत मायने रखता है। जो आप मेरे लिए वक्त दिये हैं, मै चाहता हूं कि बीच में आप उसमें कोई व्यवधान न डालें। टालमटोली या कामचोरी के बीच काम करना मेरे लिए मुश्किल हो जाएगा। सिर्फ ये ही नहीं बल्कि मेरे कैमरामैन, संगीतकार, एडिटर और कोरियाग्राफर भी नहीं बदले हैं। 

और प्रोड्यूसर भी । कैसा रिश्ता है उनके साथ ?
- सात साल पहले की बात है मैं और अभिषेक दोनों यंग थे। दोनों न्यूयार्क से लौटे थे। हमारी पहचान एक दोस्त की शादी में हुई थी। जहां तक रिश्ते की बात है, प्रोड्यूसर-डायरेक्टर की वही जोड़ी अच्छी हो सकती है जो लड़ाइयां झेल ले। हममें अब भी लड़ाई होती हैं, बस प्रकृति बदल गयी है। आज हम दोनों एक दूसरे की कमियां और खूबियां जानते हैं और उसी रूप में एक दूसरे को स्वीकार कर चुके हैं। काम के प्रतिईमानदारी दोनों की सेम है। बतौर प्रोड्यूसर अभिषेक पैसा कमाना चाहता है, लेकिन अच्छी फिल्म बनाकर और मैं एक ऐसी अच्छी फिल्म बनाना चाहता हूं, जो पैसा भी कमाये। अभिषेक की एक अच्छी बात बताऊं, कई बार इसके मना करने के बाद भी मैंने वो काम किया और गलत साबित हो गया। लेकिन ये बाद में मुझे ये जताने नहीं आया। तो इससे एक सम्मान और विश्वास का रिश्ता कायम हो जाता है। 

आज आप जो हैं, उसकी बुनियाद कब पड़ी ?
-(हंसते हुए) १९८१ में जब मैं पैदा हुआ। नौवीं कक्षा में था, जब राइटिंग में रुचि हुई और कविता, शेर लिखने की कोशिश करने लगा। मेरी मां भी डॉक्ट्रेट की हैं तो इस दिशा में घर में ही माहौल मिल गया और सपोर्ट भी मिलता रहा। दूसरे मैं फिल्में भी बहुत देखता था। शायद उसका भी असर है। 

Saturday, August 22, 2015

जज्बे से भरपूर प्यार के सामुदायीकरण की फिल्म 'मांझी द माउंटेन मैन'

बिहार के गया जिले के दलित दशरथ मांझी के रुहानी प्रेम की सच्ची घटना से प्रेरित 'मांझी द माउंटेन मैन' प्यार और जज्बे की ऐसी कहानी है, जिसमें व्यक्तिगत के साथ-साथ सामुदायिकता का भाव समाहित है। दशरथ की गर्भवती पत्नी फल्गुनिया पानी लाते पहाड़ से फिसलकर गिर गयी थी। उसके गहलोर गांव से वजीरगंज अस्पताल पहुंचे में पहाड़ होने सेहुई देरी के कारण फल्गुनिया की मौत हो जाती है। ऐसा किसी और के साथ न हो इसलिए दशरथ ने पत्नी को याद करते २२ सालों तक लगातार अकेले पहाड़ काट कर रास्ता बना दिया था।  निर्देशक केतन मेहता के लिए निश्चित रूप से दशरथ मांझी के पहाड़ तोड़ रास्ते बनाने के भागीरथी प्रयास और दिवंगत पत्नी को समर्पित प्रेरणा को एक स्क्रिप्ट का रूप देना काफी मुश्किल रहा होगा। मध्यांतर से पहले इसकी झलक भी दिखती है, लेकिन मध्यांतर के बाद फिल्म एक सूत्र में बंध जाती है। किसी क्षेत्र विशेष की सच्ची घटना को राष्ट्रीय स्तर पर दिखाने में दो प्रमुख समस्याएं आती हैं। एक वातारवरण की और दूसरी भाषा की। वातावरण की समस्या तो संबंधित स्थल पर जाने से हल हो जाती है, लेकिन भाषा की समस्या अंत तक खतरा बनी रहती है। निर्देशक यदि वही भाषा पकड़ता है, तो राष्ट्रीय स्तर पर संप्रेषण में बाधा आएगी और अगर छोड़ता है, तो वातावरण से सामंजस्य कैसे बैठेगा। इस खतरे से '
मांझी..' भी नहीं बच पायी है। केतन मेहता ने पूरी शूटिंग उसी घटना स्थल पर करके पर्दे पर सच्चाई का आभास तो करा दिया। लेकिन भाषा असंगत रह गयी।
'मांझी...' पूरी तरह से दशरथ मांझी के किरदान में नवाजुद्दीन सिद्दीकी की फिल्म है। पहले सीन में ही पहाड़ के समक्ष पत्नी के विरह में दशरथ की हृदयविदारक ललकार चौंकन्ना कर देती है। अपनी धुन के पक्के एक मूडी युवा प्रेमी से लेकर संवेदनशील बुजुर्गावस्था तक की दशरथ मांझी की जीवटता के टेंपो को नवाजुद्दीन ने पर्दे पर बरकरार रखा है। फल्गुनिया के रोल मेंराधिका आप्टे उस आदिवासी क्षेत्र की आबो हवा में घुलमिल सी गयी हैं। कथा विस्तार में फिल्म जमींदारी प्रथा और छूआछूत जैसे तत्कालीन सामाजिक मुद्दों को भी छूते हुए निकलती है। इसके लिए पात्रों का चयन भी सार्थक साबित हुआ है। लेकिन दशरथ मांझी के पूरे अभियान के बीच कई बार शाहजहां और ताज महल का जिक्र खटकता है। क्याआप मांझी के कामको शाहजहां का अनुकरण दिखाना चाहते हैं? अगर इन दोनों के कार्यों का विश्लेषण किया जाए, तो दशरथ मांझी का प्रेम कहीं ज्यादा पवित्र और सार्वभौमिक है। उसने अपने प्रेम का सामुदायीकरण कर दिया है। दूसरे ताज महल को हजारों कारीगरों ने बनाया था, जबकि दशरथ ने २२ साल में यह रास्ता अकेले बनाया था, जिसे बाद बिहार सरकार ने ३० साल में सड़क में परिवर्तित कर उसका नाम 'दशरथ मांझी पथÓ रखा।

स्टार : तीन

Sunday, August 16, 2015

'शोले' के ४० साल : बिग बी ने खोला यादों का पिटारा


१५ अगस्त, १९७५ को रिलीज हुई फिल्म 'शोले' के ४० वर्ष पूर्ण होने पर मीडिया से बात करते हिन्दी सिनेमा के महानायक अमिताभ बच्चन ने इस फिल्म से जुड़ी कई यादों को साझा किया।  उन्होंने कहा कि इसकी शूटिंग करते कभी यह सोचा नहीं था कि यह फिल्म इस तरह का इतिहास रचेगी। जब बिग बी से पूछा गया कि निजी जिंदगी में आपका वीरू कौन है, तो उन्होंने कहा, अभिषेक मेरा वीरू है। वह मेरा दोस्त है। धर्मेंद्र जी से आज भी मेरे अच्छे संबंध है।'' अपनी बेटी श्वेता को भी 'शोले' का हिस्सा बताते हुए उन्होंने बताया कि जिस सीन में मैं जया बच्चन को चाबी देने जाता हूं, उस दौरान श्वेता अपनी मां के गर्भ में थी। इसलिए मैं श्वेता से भी कहता हूं कि तुमने भी 'शोले' में काम किया।
अपने किरदार जय के बाबत अमिताभ बच्चन ने कहा, 'शोले' रिलीज के शुरू में दर्शकों की अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिलने के कारणों पर विचार करते टीम इस निश्कर्ष पर पहुंची कि जय का फिल्म में मर जाना शायद लोगों को अच्छा नहीं लग रहा। इसका कारण यह भी सोचा गया कि मेरी पिछली फिल्म 'दीवार' के अंत में भी मेरी मौत दिखाया गया था और मेरी अगली फिल्म में भी मेरा मरना दर्शकों को खटक रहा है। इसलिए जय का सुखद अंत करने के लिए दुबारा शूट करने निर्णय किया गया। वो शनिवार का दिन था  और हम लोगों को रविवार को शूटिंग के लिए बंगलौर के रामनगर जाना था।  ताकि नये प्रिंट के साथ फिल्म सोमवार को रिलीज कर दी जाये । इसी बीच निर्देशक रमेश सिप्पी ने कहा कि सोमवार तक इंतजार कर लेते हैं। फिर जो सोमवार को हुआ वो अद्भुत था। कांफ्रेंस के दौरान बिग बी ने फिल्म के कलाकारों धमेंद्र का जिक्र करते बताया कि जय के रोल के लिए जब मेरे नाम पर दुविधा बनी हुई थी, तो मैं धरम जी के घर पर जाकर अपने लिए उनसे कहा था कि मैं इस फिल्म से जुडऩा चाहता हूं आप भी मेरी पैरवी कर दीजिए। साथ ही संजीव कुमार, अमजद खान, ए.के. हंगल सहित अन्य दिवंगत कलाकारों को भी याद किया।
गौरतलब हो कि डाकू और दोस्ती की पृष्ठभूमि पर बनी 'शोले' में संजीव कुमार, अमजद खान धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, अमिताभ बच्चन, जया बच्चन द्वारा निभाये गये किरदारों की कॉपी आज भी विज्ञापन सहित
अन्य माध्यमों में दिख जाती हैं।  

Friday, July 31, 2015

'दृश्यम' : कानून बनाम भावना


सस्पेंस फिल्मों में अक्सर किसी हत्या या मुख्य घटना का पर्दाफाश अंत में होता है। कथा विस्तार में दर्शक अंदाजा लगाते रहते हैं। लेकिन 'दृश्यम' इसके ठीक उलट चलती है। इसमें मुख्य घटना आई.जी. मीरा देखमुख (तब्बू) के इकलौते पुत्र की हत्या से दर्शक पहले ही परिचित हो जाते हैं। लेकिन दिलचस्पी का कारण बनती है उस हत्या के आरोप से अपनी बेटी को बचाने की जूस्तजू करते पिता की तरकीबें। फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसकी कहानी है। मूल रूप से मलयालम में बनी 'दृश्यम' को डायरेक्टर निशिकांत कामत ने इसी नाम से हिंदी में बनाया है। पूरी कहानी विजय सालगांवकर(अजय) के एक वाक्य में वर्णित हो जाती है, जहां वो अपनी पत्नी से कहता है, ' कोई अपने परिवार के बिना जी नहीं सकता । इसके लिए दुनिया उसे चाहे खुदगर्ज कहे ।'
अजय देवगन को गंभीर रोल में देखना हमेशा अच्छा लगता है। अजय की आंखें इसमें अहम भूमिका निभाती हैं। उनकी आंखों से सादगी, बेचारगी और आक्रोश की अभिव्यक्ति काफी तीव्र होती है। बतौर कलाकार अजय की दाद देनी पड़ेगी कि पिछले कुछ सालों से केवल एक्शन और कॉमेडी करता हीरो कैसे एक चौथी फेल गंवार के व्यक्तित्व से अपनी बॉडी लैंग्वेज को एकाकार कर लेता है। तब्बू प्रशासनिक दायित्व के बीच एक मां की पीड़ा को जब तब दर्शा गयी हैं। अजय की बीवी और बेटी की भूमिका में श्रेया सरन और इशिता दत्ता ने भय के साये की जिंदगी को पर्दे पर इस तरह जिया है कि विषयवस्तु का असर और गाढ़ा हो गया है। रजत कपूर के हिस्से संवाद बहुत कम हैं, लेकिन कुछ गलत न हो जाय की चिंता में कभी एक-दो शब्दों में , तो कभी मूक अभिव्यक्ति और अंतिम सीन में बेटे के बाबत अजय देवगन से उनकी कातर अपील सहानुभूति बटोरती है। 
फिल्म में कुछ खटकने की बात करें तो मध्यांतर का इंतजार कुछ लंबा लगता है। यहां थोड़ा संपादन कर दिया गया होता तो अच्छा होता। दूसरे एक भावनात्मक फिल्म के संवाद और दृश्य जितने हृदय स्पर्शी होने चाहिए, उसकी कमी है। पूरी फिल्म में केवल एक सीन ऐसा आता है, जो एक पिता के कथ्य ' तुम लोगों का कुछ होने नहीं दूंगा' को चित्रित होते दिखाता है। जहां दिल से वाह निकल जाती है। वो सीन है विजय सालगांवकर के घर पहली बार आती पुलिस का। जब विजय की बेटी पुलिस को देख रुआंसा हो जाती है, लेकिन पुलिस बेटी से रू-ब-रू होती है, उसके पहले विजय पुलिस के समक्ष आ जाता है। संवादों में एक जगह बड़ी चूक दिखती है, जब विजय अपनी बेटी के सामने ही पत्नी से कहता है 'मेरी इस्टेमिना तो रात में ही खत्म हो गयी । '  इसमें विरोधाभास दिखता है। जिस आदमी को आप इतना दरियादिल दिखाते हैं, जो लावारिश पड़ी लड़की को घर लाकर गोद ले लेता है, वो भला कैसेअपनी उसी जवान लड़की के सामने ऐसी बात कह सकता है। पृष्ठभूमि में बजते एक-गाने पात्रों की मन:स्थिति को तो बयां करते हैं, लेकिन ज्यादा  प्रभावशाली नहीं हैं। अन्य पात्रों की चयन भी काबिले तारिफ है।

 स्टार : तीन 



Monday, July 27, 2015

मैं कमर्शियल हीरोइन हूं : ऋतुपर्णा सेनगुप्ता

बंगला फिल्मों की बेहद लोकप्रिय अभिनेत्री, जिसे परिभाषित करते हम प्रतिभा और खूबसूरती का संगम कह सकते हैं। हम बात कर रहे हैं सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त कर चुकी ऋतुपर्णा सेनगुप्ता की। उनके जिवंत अभिनय का ही कमाल है कि बंगला और हिंदी फिल्मों में उन्हें ग्लैमरस और पैरलल दोनों तरह की फिल्मों के ऑफर हमेशा आते रहे। मुलाकात के दौरान उन्होंने रील रोल का रियल जीवन में प्रभाव, इमेज, ऑडियंस के प्रति अपनी भावनायें और हिंदी फिल्मों की जर्नी के बाबत कई बातें शेयर की। प्रस्तुत है प्रमुख अंश-


क्या 'बाहुबली' की रिकॉर्ड सफलता के बाद अब राष्ट्रीय स्तर पर क्षेत्रीय फिल्मों को गंभीरता से लिया जाएगा ?
- ये तो होना ही चाहिए। क्योंकि इंडियन सिनेमा का मतलब केवल हिंदी सिनेमा नहीं हो सकता। इंडियन सिनेमा के अंदर सभी भारतीय भाषाओं की फिल्में आ जाती हैं। हर क्षेत्र की अपनी संस्कृति है। जितना हम एक दूसरे की संस्कृति को जान सकेंगे, उतना ही देश के लिए अच्छा रहेगा। इससे भारतीय कला समृद्धि होगी। सबको समान रूप से देखना चाहिए। क्योंकि हर क्षेत्र में अच्छा काम हो रहा है। अच्छे कलाकार और अच्छे डायरेक्टर हैं। इसलिए रिजनल सिनेमा या उनसे जुड़े लोगों को कमतर आंकना सही नहीं होगा।

आप पैरलल फिल्में ज्यादा करती हैं। आपको नहीं लगता कि एक ग्लैमरस अभिनेत्री को कमर्शियल सक्सेस का हिस्सा होना जरूरी है?
-मैं निश्चित रूप से कमर्शियल हीरोइन हूं। कमर्शियल सिनेमा की प्रोडक्ट हूं। लेकिन मेरा जो किरदार होता है, वो केवल कमर्शियल की सीमा में बंधा नहीं रहता, बल्कि उससे आगे बढ़कर दर्शकों से रिलेट करता है। दूसरे डायरेक्टर मेरी काबिलियत पर भरोसा करते यह अपेक्षा करते हैं कि मैं किरदार को एक अलग लेबल पर ले जाऊं। मैं आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूं कि मुझे कमर्शियल फिल्में ज्यादा करनी चाहिए।

आप हिंदी भाषी दर्शकों में भी जितनी पहचानी जाती है, हिंदी फिल्मों में उस स्तर का आपका काम नहीं दिखता। क्या बंगला फिल्मों जितनी हिंदी फिल्मों को लेकर समर्पण में कमी रही ?
-इसके कई कारण हैं। एक तो मैं हमेशा बंगला फिल्मों ज्यादा बिजी रही हूं। सो इधर ध्यान कुछ कम रहा। लेकिन यहां बहुत कुछ एक्वेशन की भी बात है। कई डायरेक्टर होते हैं, जिनकी एक्टर-एक्ट्रेस के साथ टीम होती है। उनकी प्राथमिकता उन्हीं के साथ काम करने की होती है। मैं अभी तक उस तरह की टीम का हिस्सा नहीं बनी हूं। मैं भी सोचती हूं कि बंगाला फिल्मों में जो मेरा प्रोफाइल है, नाम है और जो स्तर है। वैसा ही मुकाम यहां भी हो। लेकिन आप ही बताइये हिंदी में मुझे इस तरह के रोल नहीं मिलेंगे, तो कैसे मैं कर पाऊंगी।
आप अपने को खूबसूरत बनाये रखने के बारे में ज्यादा सोचती हैं या अपने व्यक्तित्व के बारे में ?
- व्यक्तित्व मेरे लिए ज्यादा मायने रखता है। क्योंकि हम लोगों की पब्लिक में एक अलग ही इमेज होती है। कई बार हम उदाहरण बनते हैं। मेरा मोटो ये है कि ऑडियंस के जहन में यादगार मौजूदगी हो। मुझे लगता है कि इतने सारे मेरे फैन हैं, उनके प्रति मेरी रिस्पॉसबिटी बनती है कि मेरे अंदर जो जुनून है, आत्मविश्वास है और मेरी जो पर्सनॉलिटी है, वो मैं हर लड़की मैं पैदा करने में एक कारक बनूं। दूसरी बात जो आपने सौंदर्य की पूछी, तो वो कायम रखना ही पड़ता है। क्योंकि ये हमारी इंडस्ट्री के लिए जरूरी है। इसकी अहमियत को नकारा नहीं जा सकता । दर्शक हमें स्क्रीन पर देखने आते हैं।
क्या इसको लेकर कभी दबाव महसूस हुआ?
- मेरे लिए ये दबाव नहीं, बल्कि हकीकत है। अगर किसी पब्लिक स्पेस पर मेरे पास आकर ऑटोग्राफ लेने, साथ में फोटो खिंचाने की बात कहते हैं, तो मुझे अच्छा ही लगता है। क्योंकि यही तो मेरी कमायी है। ये लोग ही तो हैं, जो मुझे प्यार करते हैं। इन्हीं के रिश्ते से हमारा वजूद है। जिस दिन ये रिश्ता कायम नहीं रहा, हम कुछ नहीं रहेंगे। हां कभी बहुत अधिक भीड़ हो जाने पर सिक्यूरिटी प्राब्लम हो जाती है।
क्या कला और संवेदनशीलता को एक दूसरे का पूरक मानती हैं ?
- हां, संवेदनशीलता से कलाकार की क् वालिटी बढ़ती है। इस दिशा में आगे बढऩे से नयी दिशा मिलती है। दूसरों की भावनाएं समझने की क्षमता आती है। देखिये हम कलाकारों की जिंदगी एक समय के बाद मैकेनिकल हो जाती है। एक रूटीन में बंध जाती है। कैमरे के सामने ये करो, वो करो, हमें मैकेनिकली लोगों के साथ काम करना पड़ता है, जिनकी आदतें हमें अच्छी नहीं लगती, उनके साथ भी बातें करनी पड़ती हैं। ऐसे में सहजता और संवेदनशीलता जैसे तत्व एक कलाकार के लिए जरूरी हो जाते हैं।
गूगल पर आपका नाम सर्च करते ही कुछ कामुक वीडियो आ जाते हैं। क्या कभी आपको लगा कि आपके पति इसे लेकर असहज महसूस कर रहे हैं?

-मेरे पति मुझसे बोल चुके हैं कि देखो यू ट्यूब पर तुम्हारे कैसे-२ वीडियो आते हैं। हमारा बेटा भी बड़ा हो रहा है। तो मैंने उनसे कहा, ''मेरे ऐसे काम भी हैं, जिसके लिए मुझे राष्ट्रीय पुरस्कार सहित कई बड़े पुरस्कार मिल चुके हैं। लेकिन वो लोग यू ट्यूब पर पहले उसको नहीं डाले। ये सब टेस्ट ऑफ आडियंस के पैमाने पर चल रहा है ना कि टेस्ट ऑफ आट्र्स पर। इस बारे मैं मैं अपने १० वर्षीय बेटे से भी बात कर चुकी हूं।
क्या आप सुचित्रा सेन की बायोपिक में काम कर रही हैं?
उनकी जीवनी से थोड़ी बहुत मिलती एक फिल्म कर रही हूं। लेकिन  यह पूरी तरह से उनकी बायोपिक नहीं है। लेकिन अगर मुझे उनकी बायोपिक फिल्म में काम करने का मौका मिले,तो मैं जरूर करूंगी। क्योंकि सुचित्रा सेन मेरी ऑल टाइम फेवरिट हैं। 

Tuesday, July 14, 2015

Friday, June 19, 2015

फिल्म 'एबीसीडी-२' की समीक्षा - कमजोर नींव पर आकर्षक नक्काशी है 'एबीसीडी-२'


किसी भी फिल्म की बुनियाद कहानी ही होती है, जिसके आधार पर फिल्म के अन्य पहलू आकार लेते हैं। लेकिन 'एबीसीडी-२'  में कहानी की कमी है। इससे डांस स्पर्धाओं में वरुण धवन और श्रद्धा कपूर सहित सभी कलाकारों का लुभावन डांस भी ऊपरी नक्काशी बनकर रह गया है। निर्देशक रेमो डिसूजा ने पूरा ध्यान केवल कोरियोग्राफी पर लगा रखा है। भव्य सेट से लेकर लाइटिंग व्यवस्था तक से इसका स्पष्ट आभास होता है। फिल्म में वरुण और श्रद्धा के रोमांटिक दृश्यों की अपेक्षा रहती है, लेकिन रेमो रोमांस, राष्ट्र प्रेम, जज्बा, स्वाभिमान और भावुकता को टुकड़ों में छूकर आगे बढ़ गये हैं। इससे ये सारे प्रसंग सतही रह गये हैं और दिलो दिमाग पर अपना असर नहीं छोड़ पाते हैं।
एक तो कमजोर कहानी, दूसरे १५४ मिनट की एक के बाद एक होती नृत्य प्रतियोगिता वाली फिल्म को लेकर कोई एकाग्र कैसे हो सकता है। अभिनय की बात करें तो प्रभु देवा भले ही अच्छे डांसर हैं लेकिन पर्दे पर डांस गुरु की भूमिका निभाते नहीं जमे। उनके चेहरे पर अधिकांश एक ही भाव दिखते रहे। बाकी कलाकारों को अभिनय से ज्यादा अपने नृत्य कौशल को प्रदर्शित करना था, जिसे उन्होंने अंजाम भी दिया है। वाकई कलाकारों के नृत्य पर लगे श्रम को यदि कहानी का सहयोग मिल गया होता, तो देखना कुछ मनोरंजक लगता। छोटे से रोल में आयीं लोरेन गॉटलिब प्रभावित कर गयीं। इसी तरह स्पेशल अपीरियंस में टिस्का चोपड़ा और पूजा बत्रा हवा के झोंके का अहसास करा गयी।

स्टार - दो  

Thursday, June 18, 2015

गीत - फलों की डाली नदी की धारा और ये मस्त हवायें

फलों की डाली नदी की धारा और ये मस्त हवायें 
कभी न रखना भेद किसी से हमको पाठ पढ़ायें 
फूल ना सोचे सामने वाला है दुर्जन या साधू 
फर्ज निभाता जाता अपनी लुटाके सारी खुशबू 
काली घटायें उगता सूरज धाम -धाम को जाएं  
कभी न रखना भेद किसी से हमको पाठ पढ़ायें
हर नाड़ी में लाल रक्त ही ना कोई दूजा रंग है 
मानवता से बढ़कर जग में ना कोई पूजा ढंग है 
जाति ना पूछें धर्म ना पूछें सबको गले लगायें 
 कभी न रखना भेद किसी से हमको पाठ पढ़ायें ।।


Wednesday, June 17, 2015

हमको बाधाओं की धूप से डर नहीं

हमको बाधाओं की धूप से डर नहीं 
सिर पे माँ की दुआओं का आँचल जो है
रुत बसंती रहे या ख़िज़ा बाग़ में
ना फिकर क्या लिखा है मेरे भाग में
नीले अम्बर से पानी गिरे ना गिरे
एक उमड़ता हुआ नेह का बादल तो है। …
मन में आँगन की खुशियां बसीं इस कदर
याद करते ही ग़म सारे हों  दर बदर
अब निशान ना दिखे पर विश्वास में
वो सुरक्षा का एहसास काजल तो है …

अश्वनी राय 

Friday, June 12, 2015

अधूरी रह गयी 'हमारी अधूरी कहानी' की संवेदना


महेश भट्ट फिल्म 'हमारी अधूरी कहानी' के जरिये काफी सालों बाद पुन: स्क्रिप्ट राइटिंग में उतरे। उन्होंने मध्यम वर्गीय समाज में महिलाओं के संदर्भ में व्याप्त रूढिय़ां और परिस्थितियों के बीच एक औरत के हालात को चित्रित किया है। इसके लिए दक्ष कलाकारों विद्या बालन, इमरान हाशमी और राजकुमार राव का चयन किया गया है। लेकिन घटनाक्रम की कमी के कारण संवेदना उभारने की पूरी कोशिश एक नाटक बनकर रह गयी है। यद्यपि विद्या बालन ने एक बोझिल वैवाहिक जीवन में विवाहेत्तर संबंधों के बीच के अंतर्विरोधों को बखूबी पर्दे पर साकार किया है। लेकिन निर्देशक मोहित सूरी ने विद्या को कुछ ज्यादा ही रुला दिया है। कुछ दृश्यों में उनक ा रुदन प्रभावहीन लगता है। सबसे महत्वपूर्ण बात कि यह अंतर्विरोध पश्चाताप के बजाय रवायतों को लेकर दिखता है। फिल्म हरि के माध्यम से पुरुषों के काइयापन का नंगा चित्र प्रस्तुत करती है।
पति हरि (राजकुमार राव) के गुम होने के बाद बेटे साथ रहती वसुधा (विद्या बालन) एक होटल में काम करती है। हरि के आंतकवादी होने का सबूत लेकर पुलिस अक्सर वसुधा से सवाल करती रहती है। सउदी अरब का बड़ा होटल व्यवसायी आरव (इमरान हाशमी) उस होटल को खरीद लेता है। वह वसुधा की ईमानदारी और सूझ बूझ का कायल हो मोटी सेलरी पर अपने सउदी के होटल में काम करने का प्रस्ताव देता है। वसुधा भी पति के छाये से बेटे को दूर रखने सउदी आ जाती है। आरव और वसुधा को प्यार हो जाता है। इसी दौरान हरि भी अचानक उपस्थित हो वसुधा से अपनी बेगुनाही की बात कहता है। हरि को पुलिस गिरफ्तार कर लेती है। वसुधा हरि को बचाने आरव से मदद मांगती है। दूसरी ओर हरि के आतंकवादी होने की स्वीकृत पर उसे मौत की सजा हो चुकी है। आरव हरि को बचाने छत्तीसगढ़ के बस्तर पहुंच प्रत्यक्ष गवाह की गवाही भेजता है, जिस पर हरि छूट जाता है, लेकिन लैंड माइंस के विस्फोट से अपनी जान गंवा बैठता है। वसुधा को जब पता चलता है कि हरि उसके जज्बात का फायदा उठा जानबूझ कर गुनाही स्वीकार किया रहता है, ताकि वह उसकी कुर्बानीतले दबकर आरव से शादी न कर सके, तब वह हरि को छोड़ भाग जाती है।
फिल्म का मूल मंतव्य घर से भागी वसुधा से हरि के मिलने पर उभरकर आता है, जब अब तक केवल रोतीवसुधा पुरुष प्रधान समाज में नारी की पराधीनता के एक-एक पर्दे उधेड़ती है। राजकुमार राव एक बार फिर अपनी छाप छोड़ गये हैं। इमरान एक अलग रूप में आये और भाये भी। फिल्म के कुछ गाने अच्छे हैं। टाइटल सांग पात्रों के यथार्थ को व्यक्त करता है। लोकेशन अच्छे लगते हैं।
स्टार : ढाई        

Saturday, June 6, 2015

ओढ़े हुए व्यक्तित्व-रूढि़वादिता पर चोट करती नारी सशक्तिकरण की फिल्म है 'दिल धड़कने दो'


पुरुष प्रधान समाज, ओढ़े हुए व्यक्तित्व और रूढि़वादिता पर चोट करती एक छोर से महिला सशक्तिकरण की फिल्म है 'दिल धड़कने दो'। चुटीले संवाद और कलाकारों का अभिनय इस फिल्म के मजबूत पक्ष हैं। जोया अख्तर के निर्देशन में बनी 'दिल धड़कने दो'  कथानक के स्तर पर बांधती हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण में बिखराव के कारण लगभग १७० मिनट की फिल्म देखते कई बार ध्यान भटक जाता है। इंटरवल का इंतजार कुछ ज्यादा लगता है। फिल्म में एक अहम पात्र डॉग प्लूटो है, जिसे आवाज दी है आमिर खान ने। प्लूटो सभी पात्रों, स्थितियों और मानवीय विसंगतियों पर कमेंट कर उनका छिद्रांवेषण करता चलता है।
कहानी उच्च वर्ग के कमल मेहरा (अनिल कपूर) परिवार की है। बात-बात में अपनी मेहनत के बूते एक मुकाम बनाने की शेखी बघारने वाले कमल मेहरा की कंपनी आर्थिक संकट से गुजर रही है।   कमल अपनी शादी की ३०वीं वर्षगांठ पर क्रुज पर एक शानदार पार्टी देने वाले हैं। पत्नी नीलम (शेफाली शाह)की सलाह पर पूर्व परिचित सफल उद्योगपति को पार्टी में निमंत्रित कर उसकी एकलौती बेटी से अपने बेटे कबीर (रनवीर सिंह) का विवाह कर कंपनी का संकट दूर करने की योजना बनाते हैं। लेकिन निठल्ला और प्लेन उड़ाने का शौकीन कबीर डांसर फराह अली (अनुष्का शर्मा)को दिल दे बैठा है।  अपने बूते कारोबार की दुनिया में काफी नाम कमा चुकी कमल मेहरा की बेटी आयशा (प्रियंका चोपड़ा) अपने पति मानव (राहुल बोस) के साथ खुश नहीं है। वह उससे तलाक लेना चाहती है, लेकिन अपने पिता के शख्त रवैये से जाहिर नहीं कर पाती। वह अपने पिता द्वारा उपेक्षित अपनी मां से भी कहती है कि तूने पापा से डिवोर्स क्योंनहीं लिया। क्रुज पर कमल मेहरा के मैनेजर के बेटे सन्नी (फरहान अख्तर) की उपस्थिति हो चुकी है। आयशा और सन्नी$ कभी एक दूसरे को चाहते थे, लेकिन कमल ने उन्हें दूर कर $िदया था।  अंतत: कबीर के अंदर का गुबार फूट पड़ता है और अब तक डरा सहमा सा लड़का पिता से उनकी फरेबी मर्यादा, उनके विवाहेत्तर संबंध और रूढि़वादिता के नीचे दब दम तोड़ते बच्चों के अरमानों  पर बहस करता है। कमल मेहरा के हृदय परिवर्तित के साथ कहानी का सुखांत होता है। लेकिन क्लाइमेक्स में फिल्म का शिथिल हो जाना खटकता है।
फिल्म के गाने और उनके फिल्मांकन अच्छे लगते हैं। अनिल कपूर ने एक पारंपरिक पिता के किरदार में जमे हैं, शेफाली शाह ने भी उपेक्षित पत्नी के एकाकीपन से रूबरू कराया है। प्रियंका चोपड़ा मुरीद बना गईं, तो रनवीर का ऊर्जावान निठल्लापन भी भा गया। छोटे-छोटे रोल में आये फरहान अख्तर और अनुष्का शर्मा फिल्म को गति दे गये हैं। 

Friday, May 29, 2015

शूटिंग मेरी जिंदगी का बेस्ट मोमेंट : मीनाक्षी दीक्षित


आज हिंदी फिल्मों से साउथ की फिल्मों से कई हीरोइनें आ रही हैं। लेकिन वो साउथ की नहीं होती। अपने बारे में बतायें ? 
लखनऊ से हूं, मुंबई में रहती हूं, साऊथ में काम करती हूं और अब 'पी से पीएम तक" से हिन्दी फिल्मों की शुरुआत कर रही हूं। पापा वकील और भाई-बहन इंजीनियर हैं। बचपन से ही गाने-डांस प्रतियोगिता में जीतती रही हूं। चुपके से डांस रियलटी शो 'नचले विथ सरोज खानÓ के लिए ऑडिशन दिया और सेलेक्ट होने के बाद थोड़ी जिद की। पापा अपोजिट थे, लेकिन मम्मी, पड़ोसियों और सरोज खान द्वारा मेरी तारीफ सुन वे भी राजी हो गये।

 सुना है आपके चयन से पहले कुंदन शाह करीब १०० लड़कियों के आडिशन ले चुके थे। कैसे मिली यह फिल्म ?
- ऑडिशन देकर ही मिली। पहले उनके कास्टिंग डायरेक्टर ने मेरा ऑडिशन लिया, फिर मुझे चार बार कुंदन सर के समक्ष आडिशन देना पड़ा। वो भारतीय लुक खोज रहे थे। माधुरी दीक्षित और श्री देवी की जोन का चेहरा चाहते थे। मैं तो हर टेक अलग-अलग देती हूं। ये बात उन्हें अच्छी लगी। बाद में उन्होंने कहा भी  ''मैं इसे ग्रूम करूंगा, तो इससे वो किरदार हासिल कर लूंगा, जिसकी मुझे अब तक तलाश थी।

हिंदी की पहली ही फिल्म में प्रोस्टीच्यूट का रोल स्वीकार करते अपनी इमेज को लेकर डर नहीं
लगा ?

-डर किस लिए ! वो एक किरदार है और मैं एक एक्ट्रेस। देखिये एक तो मैं आउट साइडर हूं। पारिवारिक पृष्ठभूमि के स्तर पर फिल्म इंडस्ट्री से मेरा वास्ता नहीं है। ऐसे में हमें फिल्में चुनने के मौके मिलने से रहे। मैं तो अपने को बहुत भाग्यशाली मानती हूं कि कुंदन शाह जैसे बड़े निर्देशक के साथ काम मिला। वरना यह फिल्म तो किसी न्यू कमर लड़की को मिलने की बात सोची भी नहीं जा सकती। क्योंकि बाद में मुझे पता चला कि कुंदन सर बहुत पहले ही यह फिल्म माधुरी दीक्षित को लेकर बनाने की सोच रहे थे। इसी से इसके लेबल का अंदाजा लगाया जा सकता है।

'पी से पीएम तक" में आपका किरदार कैसा है ?
- मेरा किरदार लो लाइन वेश्या कस्तूरी का है। वह अपनी जीविका के लिए भागदौड़ करते जहां पहुंचती है, वहां चुनाव हो रहे हैं । कस्तूरी उसी चक्रव्यूह फंस जाती है और चार दिन में सीएम बन जाती है। उसके बाद वह पीएम के लिए ताकतवर उम्मीदवार भी बन जाती है। फिल्म में उसे पीएम बनते दिखाया नहीं गया है।

कस्तूरी को पर्दे पर साकार करने के लिए किस तरह से तैयारी की ?
- कुछ पुरानी स्क्रिप्ट पढ़ी। पहचान छुपाकर मुंबई के रेड लाइट एरिया में जाकर कुछ प्रोस्टीच्यूट से मिली। वो अपनी आप बीती बताते रो पड़ती। हर एक की दर्द भरी कहानी है। उनके घर देख आप रो पड़ेंगे। बड़ी अजीब जिंदगी है उनकी। कुछ तो इतनी खूबसूरत मिली कि क्या कहने। उफ्फ कैसी-कैसी परिस्थितियों का वो सामना कर रही हैं। फिर भी खुश हैं।

आप इमोशनल हो गयीं। आपकी आंखों में आंसू दिख रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री में किसी की अतिरिक्त भावुकता को कमजोरी समझ फायदा उठाने की भी खबरें आती हैं ?
-आप चाहे इसे मेरी कमजोरी कहें या ताकत, लेकिन मैं इसे अपनी ताकत मानती हूं। क्योंकि मुझे किसी भी तरह के इमोशन लाने में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। मुझे लगता है अगर आप इंसानियत को नजदीक से नहीं महसूस कर सकते, तो एक अच्छा कलाकार भी नहीं बन सकते। अपनी सच्चाई से क्या छुपना । जो हूं सो हूं।

कुंदन शाह के साथ काम करने का अनुभव कैसा रहा ?
-मेरे लिए बोर्डिंग स्कूल की टे्रनिंग का अहसास रहा । बस उन्होंने डंडे नहीं मारे। कुंदन सर अपने आप में एक इंस्टीच्यूट हैं। वो काफी जीनियस है। फिल्म सहित कई क्षेत्रों में उनकी गहरी समझ है। इस फिल्म की शूटिंग के दौरान जो मैंने उनसे सीखा है, वो आगे मेरे पूरे करियर में काम आने वाला है।

क्या अब साउथ की फिल्मों को अलविदा कह आयी हैं ?
-नहीं नहीं ! अब भी वहां के तीन प्रोजेक्ट शूट कर रही हूं। मैं अपनी जमी जमाई दुकान क्यों छोड़ूंगी। साउथ की १० फिल्में करने के बाद वहां मेरा मार्केट है। लोग मेरा रिस्पेक्ट करते हैं। मैं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री और साउथ में बैलेंस करके चलूंगी।

क्या शुरू से अभिनेत्री बनने का सपना था ?
-मैं बहुत साधारण लड़की हूं। बिल्कुल आपके घर की लड़कियों जैसी। स्क्रीन पर मेरा बिल्कुल अलग रूप होता है। देखिये मैं जब शूटिंग कर होती हूं, तो अपनी जिंदगी का बेस्ट मोमेंट जी रही होती है। इससे ज्यादा खुशी मुझे किसी काम से नहीं मिलती। इससे अपनी च्वॉइस का पता चल जाता है।  जब पांचवीं में थी तभी से डांस स्पर्धा में भाग लेती रही हूं। तब कहां पता था किधर जाना है। मैं माधुरी की फैन रही हूं। न जाने उनके कितने गानों पर डांस करके अवॉर्ड जीती हूं। भगवान से प्रार्थना है कि उनके जैसे कुछ गुण भी मुझे दे दे, तो भाग्य खुल जाये।                                                                                       -अश्वनी राय  
   

Sunday, March 29, 2015

घर बैठे इंतजार करने से अच्छा है काम करते हुए मंजिल की तरफ बढऩा: निकिता दत्ता




लाइफ ओके पर आ रहे शो 'ड्रीम गर्ल- एक लड़की दीवानी सी'  के साथ मिस इंडिया प्रतियोगिता की फाइनलिस्ट रही निकिता दत्ता ने फिल्म से शुरुआत के बाद सीरियल में
दस्तक दी हैं। शो की मुख्य किरदार जोधपुर की लड़की लक्ष्मी, जो काफी परेशानियों के बीच अभिनेत्री बनना चाहती है के सपनों और सपनों के लिए उसकी उड़ान की चाहत को पर्दे पर आयाम देती निकिता की कहानी उन्हीं की जुबानी-  
अभिनय की शुरुआत फिल्मों से कर टीवी शो में आगई। क्या फिल्मों से मोह भंग हो गया ?
- नहीं-नहीं , ऐसा बिलकुल नहीं है। मैं कभी प्लानिंग करके नहीं चलती कि मुझे ये करना है, वो करना है। मेरे पास जो काम आता है और वो मुझे पसंद भी आये तो मैं करती जाती हूं। पिछले साल फिल्म 'लेकर हम दीवाना दिल' की । इस साल जब 'ड्रीम गर्ल- एक लड़की दीवानी सी' का प्रस्ताव आया, तो मुझे इसका कांसेप्ट बहुत पसंद आया। खासकर जोधपुर की लड़की लक्ष्मी के किरदार के अनूठेपन ने मुझे यह रोल करने के लिए प्रेरित किया कि कैसे यह लड़की हर समस्या का समाधान रखती है। मैं पर्सनली सास-बहू सीरियल की फैन भी नहीं हूं।
सीरियल करने से पहले क्या डर नहीं लगा कि कहीं फिल्मों के दरवाजे बंद न हो जायें ?
-देखिये मैं ज्यादा दूर की सोचती नहीं। पहले भी बताया कि जो पसंद का आता जाता है, करती जाती हूं। मेरा लॉजिक है कि फिल्म मिलनी होगी तो मिल जाएगी। हाथ पर हाथ धरे घर बैठकर किसी चीज का इंतजार करें उससे ज्यादा अच्छा है कि हम काम करते हुए अपने मनचाहे काम का इंतजार करें।
आपने कहा जो आता है करती जाती हूं। इस सोच ने अब तक कैसे-कैसे काम करवा लिया ?
-मैं तो आईएएस बनना चाहती थी। मेरे पापा डिफेंस सर्विस में रहे हैं। मेरे भाई, मेरे चाचा भी इसी लाइन में कोई विंग कमांडर तो कोई ब्रिगेडियर है। १०साल से मुंबई में हूं। यहीं ग्रेजुएशन लास्ट इयर में थी जब मिस इंडिया प्रतियोगिता में भाग लिया और फाइनल तक पहुंची। इसी के बाद दिशा बदल गयी। ग्रेजुएशन के बाद जूम टीवी में एंकर का जॉब मिल गया, फिर स्टार स्पोट्र्स पर २०-२० वल्र्ड कप की एंकरिंग और  फिल्म 'लेकर हम दीवाना दिल' की । साथ ही कई सारे विज्ञापन भी किये।
'ड्रीम गर्ल' की खासियत क्या है ? क्या यह छोटे शहरों से यहां आने वाली लड़कियों के लिए गाइड लाइन होगी ?
— मैं जो रोल लक्ष्मी का कर रही हूं, यह लड़की बहुत सीधी सादी न होकर थोड़ी नॉटी है, लेकिन यह कोई गलत रास्ता नहीं अपनाती। यह छोटे शहर से मनोरंजन इंडस्ट्री में काम करने की इच्छा वाली लड़की की कहानी है। एक तरह से यह शो उन लड़कियों के लिए गाइड लाइन के रूप में एक नजरिया प्रस्तुत करेगा। जब हम जोधपुर में इसकी शूटिंग कर रहे थे, तब कई लड़कियों ने मुझसे कहा कि दीदी हमें भी आप जैसे बनना है। लेकिन ऐसी लड़कियों के साथ समस्या यह होती है कि उन्हें इस फिल्ड की सही जानकारी नहीं होती। दूसरे उन्हें पारिवारिक सपोर्ट नहीं मिलता। इस शो की सबसे बड़ी खासियत है कि लक्ष्मी अपने पापा को तैयार करके आती है, न कि बगावत करके। व्यक्तिगत तौर पर भी मैं आज अपने फैमिली सपोर्ट की वजह से ही यहां हूं।
सीरियल में काम का दबाव अधिक रहता है। कैसा लग रहा है ?
- व्यस्तता तो है ।  फिल्म या एड में काम आराम से होता है। लेकिन सीरियल में काफी जल्दबाजी रहती है। अभी मैं यूज टू होने की कोशिश कर रही हूं। आगे के दिनों को गिनती हूं कि इस दिन छुट्टी रहेगी और पूरी तरह आराम करूंगी।

Monday, February 9, 2015

फिल्म समीक्षा : 'षमिताभ'


स्टार : तीन
'षमिताभ' का मूल्यांकन करते यदि अमिताभ बच्चन के अभिनय को सामने रखकर विचार करें, तो फिल्म की रेटिंग काफी ऊपर रखने की इच्छा होगी, लेकिन अगर बिग बी को परे रखकर पूरी फिल्म पर नजर दौड़ायें तो रेटिंग स्तर एक पर आ जाएगी। बिग बी का जिवंत अभिनय देखने के लिए २.३० घंटे का समय भी झेला जा सकता है। क्योंकि यह अभिनय एक अविस्मरणीय याद का हिस्सा बन जाएगा।
निर्देशक आर. बाल्कि ने केवल चाहत के सहारे सपने के साकार होने की कहानी दिखायी है। बचपन से ही मूक दानिश (धनुष) फिल्मों में हीरो बनने का ख्वाब लिये फिरता है। वह इगतपुरी से मुंबई आ जाता है। यहां उसके संघर्ष को सहायक निर्देशक अक्षरा (अक्षरा हसन) का सहयोग मिलता है। मुंबई कभी हीरो बनने आये असफल पियक्कड़ अमिताभ सिन्हा (अमिताभ बच्चन) की आवाज के उपयोग से मूक दानिश सुपर स्टार बन जाता है। आगे इस सफलता में अपनी-अपनी भूमिका के योगदान को लेकर दोनों के अहम् टकराने से अलग होने और फिर एक होने की कहानी है।
यद्यपि बाल्की एक नई कहानी के साथ आये हैं। लेकिन खटकने वाली बात उनके मुख्य हीरो के विकासक्रम को लेकर आती है। इस हीरो की परिभाषा किसी भी संस्कृति के पैमाने पर देना मुश्किल है।   यही कारण है कि दानिश को पर्दे पर साकार करते धनुष की सफल कोशिश भी कहानी में दिलचस्पी नहीं जगा पाती। क्योंकि दानिश का चरित्र चित्रण ही खोखला है। मध्यांतर के बाद तो कुछ दृश्यों में फिल्म बोझिल लगती है और ध्यान इधर-उधर भटकने लगता है।  ७२ की उम्र में भी चुस्ती- फुर्ती से भरपूर अमिताभ बच्चन की जिंदादिली ही है कि ध्यान पुन: फिल्म का कायल हो जाता है। अपनी पहली ही फिल्म में अक्षर हसन अच्छी लगी हैं। फिल्म के गीत-संगीत अच्छे हैं।        

Thursday, January 8, 2015

खतरनाक रहा डरने-डराने का अनुभव : बिपाशा बसु

खतरनाक रहा डरने-डराने का अनुभव : बिपाशा बसु
आज के दौर में जहां विज्ञापन एंजेसियों द्वारा खूबसूरती के लिए गोरे रंग की अहमियत का लंबा-चौड़ा जाल बुना जा रहा है । गोरा बनाने का बाजार करोड़ों में दौड़ रहा है, वहीं सांवली सलोनी बिपासा बसु हिंदी सिनेमा में पदार्पण के 14 साल बाद भी अपनी फि टनेस और मादक अदा से सुंदरता के नये पैमाने गढ़ती ये साबित कर रही हैं कि खूबसूरती केवल गोरे रंग की मोहताज नहीं होती। कई हिट फिल्मों का हिस्सा रही बिपासा 'राज', 'राज 3', 'आत्मा' और 'क्रिचर 3डी' के बाद एक और डरावनी फिल्म 'अलोन' में आ रही हैं।

-आपको हॉरर क्वीन कहा जाने लगा है। क्या ये श्रृंखला और आगे बढ़ेगी ?
हॉरर की रेस में मैं अकेली ही तो हूं। ऐसे में हॉरर क्वीनका तमगा मिलना स्वाभाविक ही है। जब मैं 'क्रिचर' फिल्म कर रही थी, तो उस दौरान मैं सबको क्रिचर फिल्म बता रही थी। मैंने पूरी कोशिश की कि लोग उसे हॉरर फिल्म के बजाय एडवेंचर फिल्म समझें। जहां तक हॉरर फिल्मों की श्रंृखला का सवाल है, ये श्रृंखला अब टूट गयी है। मेरी अगली फिल्म फैमिली ड्रामा है।
-आप बिना फिल्मी बैक ग्राउंड से आकर यहां एक खास जगह बना चुकी हैं। आपके अनुभव से बिना फिल्मी परिवार से आ रही लड़कियों में वो कौन सी बात होनी चाहिए, जिससे कोई उनकी मजबूरी का फ ायदा न उठा पाये ?
देखिये इस मामले में सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि आपकी मजबूरी का फ ायदा कोई तभी उठा पाएगा, जब आप उसे उठाने देंगे। यह बात लड़की हो या लड़का सबको समझना बहुत जरूरी है। काफ ी पहले 16 साल की उम्र में ही मैं समझ गई थी कि हां बोलने से ज्यादा मुश्किल है ना कहना। लेकिन कहीं-कहीं ना कहना बिल्कुल जरूरी है। मैं 16 साल की उम्र से ना कहते आ रही हूं। अगर कोई भी लड़की यह नजरिया रखते हुए अपने आप पर विश्वास रखे तो यहां भी बिना धोखा खाये अपनी मंजिल पा सकती है।
-'अलोन' कैसी फिल्म है ?
 यह एक त्रिकोणीय प्रेम कहानी है। इसमें मैं डबल रोल में दो जुड़वा बहनें संजना और अंजना का रोल कर रही हूं, जो एक ही युवक कबीर से प्रेम रही हैं।  'अलोन' फि ल्म  हॉरर के साथ एक भावुक कहानी समेटे हुए है। इसमें एक प्रेम कहानी के माध्यम से रिश्तों के कई पहलुओं को दिखाने की कोशिश की गई। इसी लिए मैंने यह फिल्म की। अपने जीवन में कभी भी किसी के प्यार में रहा व्यक्ति फिल्म की गहराई को समझ लेगा। एक बात और बताना चाहूंगी कि 'अलोन' सिर्फ  गेटअप से ही नहीं बल्कि सिक्वेंस के स्तर पर भी वास्तविक रूप से डरावनी फिल्म है।
 - 'अलोन' में डरने-डराने का अनुभव कैसा रहा ? दूसरी बात कि आप बहुत डरपोक लड़की है, तो क्या डरावनी फिल्मों में इसी लिए आपको लिया जाता है कि पर्दे पर वास्तविकता दिखे ?
 आपने बिल्कुल सही कहा, मैं बहुत-बहुत डरपोक हूं। डरना मैं जानती हूं। पहले भी डरने का रोल कर चुकी हूं।  मेरे लिए डरने- डराने का अनुभव काफ ी खतरनाक रहा। शूटिंग के वक्त ऐसा भी हुआ कि डर कर मेरे चिल्लाने को पहले यूनिट के लोग अभिनय समझे, लेकिन मेरे लगातार रोते-चिल्लाने से उन्हें असलियत का पता चला और फिर सबने मेरे पास आकर मुझे संभाला। डराना मुझे आता नहीं और 'अलोन' में डराने का काम भी मैं ही कर रही हूं।  आप बताइये भूत कैसे डराता है, ये कैसे पता? मैं तो नहीं जानती और मेरा एक रोल डराने का है। ये काम मेरे लिए बहुत मुश्किल भरा रहा। इसलिए जैसा डायरेक्टर भूषण मुझे बताते थे मैं वैसा ही करती गई। आपके दूसरे सवाल पर यही कहना चाहूंगी कि हॉरर फिल्म का मतलब केवल ये नहीं होता कि आप हमेशा डर का ही भाव दिखायें। अन्य फिल्मों की तरह इसमें भी अलग-अलग खुशी और दु:ख के अहसास होते हैं। मेरे ख्याल से भावुक कलाकार बेहतर कलाकार होते हैं। अगर आप किसी भावना को महसूस नहीं कर सकते, तो आप पर्दे पर कैस ेदिखा पाएंगे। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि आप हर परिस्थिति को गहराई से महसूस करें।
-आज के गानों को लेकर कहा जा रहा है कि ये सुनने से ज्यादा देखने के लिए बनाये जा रहे हैं। 'अलोन' के गानों के बाद तो एक ठोस उदाहरण मिल जाएगा ?
 जब हमें कतरा गाना भेजा गया, तो हमने इसे कई बार सुना और काफ ी इंजॉय किया। उस समय इसका बिल्कुल अंदाजा नहीं था कि यह गाना कैसे फि ल्माया जाएगा। आडियों सुनकर ही मुझे लगा कि इस गाने में 'जादू है नशा है' वाला असर है। दूसरे मैं अपने को लकी मानती हूं कि अब तक मेरे हिस्से कई सारे हिट गाने आये हैं।
—फिल्म इंडस्ट्री के कई कलाकारों के बारे में कहा जाता कि वह बढिय़ा हैं लेकिन उसके नखरे बहुत हैं या उसको लेना एक परेशानी मोलना है। इन कारणों से आप भी इत्तेफ ाक रखती हैं ?
मैं दोनों में से नहीं हूं। मैं एक पेशेवर कलाकार हूं। अगर आपने मुझसे जो देने का वादा किया है तो आपको वो मुझे देना पड़ेगा। नहीं देंगे, तो मैं गुस्सा हो जाऊंगी। मुझे बहुत जल्दी गुस्सा आता है। दूसरी बात कि अगर हम सेट पर काम करने जा रहे हैं, तो मैं चाहती हूं सब अपना काम करेंं। कामचोर, अनुशासनहीन और दूसरों के समय का सम्मान नहीं करने वाले लोग मुझे पसंद नहीं हैं।
-अपने 14 साल के करियर में कोई ऐसी फि ल्म जिसे करने का पछतावा हो ?
हां, 'हमशकल्स' करने का । इसका नाम भी नहीं लेना चाहती।
-तो क्या आपने 'हमशकल्स' के असफ ल होने का जश्न मनाया ?
मैं कभी भी किसी फि ल्म की असफ लता का जश्न नहीं मनाऊंगी। क्योंकि मुझे पता है कि एक फि ल्म के बनने में काफ ी पैसा खर्च होता है, बहुत से लोगों का परिश्रम लगा होता है। तो मैं कभी नहीं चाहूंगी कि कोई फि ल्म फ्लॉप हो। मेरा स्टैंड बस ये था कि मैं फिल्म को नीचा न करूं। 'हमशकल्स' के निर्माता वासु से मैंने कहा था कि मैं अपने रोल के बारे में नहीं जानती, फि ल्म के बारे में नहीं जानती। ऐसे में इसे प्रमोट करते मुझे असुविधा होगी। मैं  फि ल्म में केवल एक्टिंग नहीं करती हूं। बल्कि मैं फिल्म के पोस्ट प्रोडक्शन, प्रमोशन सहित हर सम्भव पक्ष में रूचि लेते हुए पूरा सहयोग करती हूं।

Monday, January 5, 2015

नायिका प्रधान फिल्मों के नाम रहा साल 2014


पुरुष प्रधान फिल्मों की परंपरा वाले हिंदी सिनेमा के साल 2014 पर यदि नजर दौड़ायें तो महिलाओं के संदर्भ में एक रचनात्मक
प्रयोग दिखा। इस साल की कई फिल्मों में नायिका की भूमिका पेड़ों के इर्द-गिर्द नाचने, सौंदर्य प्रदर्शन और नायक को लुभाने से आगे बढ़कर गंभीर चरित्र चित्रण की रही। एक नजर उन फिल्मों पर-

डेढ़ इश्किया
२०१४ में नायिका प्रधान फिल्मों की शुरुआत हुई 'डेढ़ इश्किया' से। इसकी थीम थी 'अपने नजरिये से अपना मूल्यांकन।' इसी की छटपटाहट दिखी नृत्य और गायन की शौकीन बेगम पारो (माधुरी दीक्षित नेने)में। जुआ और शराब की लत वाले बेपरवाह पति, जो सारी सम्पत्ति गिरवी रख गया है के निधन के बाद अपनी आजादी की जद्दोजहद करती बेगम पारो के पूरे जीवन का विहंगावलोकन करने पर कई परतें खुलीं और हर परत में एक पीड़ा दिखी, जिसकी मौजूदगी हर युग में दिखती रही है। हुमा कुरैशी माधुरी की दोस्त की भूमिका में थी।
हाईवे
इसके बाद आई हृदयविदारक सच्चाई से रू-ब-रू कराती 'हाईवे'। इस फिल्म ने टुकड़ों में समाज के कई बेहद संवेदनशील व्यावहारिक पहलुओं को उजागर की। फिल्म का मुख्य तत्व अभिजात्य वर्ग के दिखावटी सभ्यता का खोखलापन था। फिल्म खासकर लड़कियों के पालन-पोषण और उनकी सुरक्षा पर प्रकाश डालते यौन शोषण के मामलों के सबसे बड़े सुरक्षा कवच 'किसी से कुछ ना कहना' को नंगा कर गयी। उन्मुक्तता और आक्रोश के मनोभावों को व्यक्त करते आलिया भट्ट सबका दिल जीत गईं।
हंसी तो फं सी
'हंसी तो फं सी'  देखते सामाजिक और पारिवारिक रुढिय़ों से खुले विचार के टकराव और उसकी परिणति के प्रति उत्सुकता रही । फिल्म की सबसे सफ ल कड़ी मीता के किरदार में परिणीति चोपड़ा थी, जिन्होंने रुढिय़ों के विरुद्ध केवल अपने दिल की सुनने वाली एक सिद्धांतवादी आधुनिक सोच की लड़की के किरदार को पर्दे पर जिवंत कर दिया।
गुलाब गैंग
'गुलाब गैंग'  हिंदी सिनेमा में चरित्र और विषयवस्तु के स्तर पर प्रयोगों के साथ आई, जिसमें मुख्य कलाकार और सहायक कलाकारों के रूप में महिलाओं की प्रमुखता थी। पहली बार दिखा कि नायक और खलनायक के रूप में दो महिलाएं क्रमश: माधुरी दीक्षित और जूही चावला थी। बुंदेलखंड की महिला अधिकारों की कार्यकर्ता संपत पाल के जीवन पर आधारित होने के विवादित मुद्दे और माधुरी एवं जूही के एक साथ काम करने को लेकर फिल्म काफी चर्चा में रही। यद्यपि फिल्म समीक्षकों द्वारा औसत रेटिंग के बाद भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हो पाई।
क्वीन
कंगना रानौत अभिनीत 'क्वीन' में अपने मंगेतर के छोड़े जाने के बाद आत्म विश्वास से भरपूर हनीमून पर अकेले पेरिस जाने वाली युवती की कहानी ने आलोचकों और दर्शकों को चौंका दिया था।  'क्वीन' ने 21वीं सदी की युवतियों की भावनाओं को आवाज दी थी।  साथ ही इसका कारोबार भी काफ ी अच्छा रहा।
मर्दानी
 'मर्दानी' से रूपहले पर्दे पर रानी मुखर्जी की लम्बे समय के अंतराल के बाद धमाकेदार इंट्री हुई। फिल्म में रानी मुखर्जी बच्चों के अवैध व्यापार की अंधेरी दुनिया की कलई खोलती नजर आई। इसमें रानी सेक्स व्यापार के सरगनाओं का पर्दाफाश करती एक जाबांज पुलिसकर्मी की भूमिका में दिखी, जो महिलाओं को समाज में खुलकर और परेशानियों का डंटकर सामना करने के लिए प्रोत्साहित  करती है।
मैरीकॉम
बॉक्सिंग की पांच बार विश्वविजेता रही मैरी कॉम के जीवन पर आधारित फिल्म 'मैरीकॉम'
में  प्रियंका चोपड़ा के शानदार अभिनय ने लोगों को मंत्र मुग्ध कर दिया। प्रियंका ने एक बॉक्सर और मां के रूप में सशक्त अभिनय किया। फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर भी अच्छी कमाई की।
बॉबी जासूस
एक मुस्लिम परिवार की लडक़ी बॉबी के सपनों की कहानी कहती 'बॉबी जासूस' भी नायिका के नाम रही।  यह फिल्म वर्तमान में मुस्लिम समाज में आए परिवत्र्तन को व्यक्त करती है।
हेट स्टोरी दो
सुरवीन चावला अभिनीत 'हेट स्टोरी दो' भी काफी सराही गई, जिससें किसी मजबूरी में नायक की चपेट  में आई सोनिका (सुरवीन चावला) नायक द्वारा रखैल बनाने के बाद अपने साथ हुई ज्यादतियों का बदला लेती है।
रिवाल्वर रानी
चंबल की पृष्ठभूमि पर बनी 'रिवाल्वर रानी' के रूप में कंगना का अनदेखा अंदाज उनके प्रशंसकों की संख्या में इजाफा कर गया। कंगना प्रतिशोध में विनाशक और प्यार में बेहद समर्पित नम दिल की नारी के रूप से रू-ब-रू कराने में सफल रहीं।