Monday, June 2, 2014

फिल्म समीक्षा : 'सिटी लाइट्स'



ग्रामीण और छोटे शहरों के युवकों को रोजगार के लिए महानगर संभावनाओं का एक सुनहरा लोक नजर आता है। अपने परिवार की आजीविका के लिए ये लाचार युवक थोड़े से पैसे और बहुत ज्यादा ईमानदारी, कर्मठता और सरलता लिए महानगरों में आ जाते हैं। लेकिन उन्हें क्या पता कि बड़े शहरों की ऊंची-ऊंची बिल्डिंगों में रहने वालों का जमीर कितना नीचा होता है। फलस्वरूप पहले केवल आर्थिक परेशानियों का सामना करता युवक महानगरों में आकर अपने स्वाभिमान, अपने पूरे अस्तित्व को मटियामेट होते देखते रहने को अभिशप्त होता है। यही कहानी है हंसल निर्देशित फिल्म 'सिटी लाइट्सÓ की। 
राजस्थान के पाली जिले में भारी कर्ज में कपड़े की दुकान चलाता दीपक सिंह (राजकुमार राव)अच्छी जिंदगी का ख्वाब सजा रोजगार के लिए पत्नी राखी (पत्रलेखा)और छोटी सी बेटी को लेकर मुंबई आता है। मुंबई आते ही रहने के लिए मकान दिलाने के नाम पर ठगी का शिकार होता है। दीपक बीवी-बच्ची के साथ सड़क पर रात बिताता है। एक बार डांसर के सहयोग से उन्हें निर्माणाधीन बिल्डिंग में १०० रुपये रोज पर रहने का ठिकाना मिलता है। काम के लिए दर-दर भटकते दीपक को सिक्यूरिटी गार्ड की नौकरी मिलती है। आर्थिक जरूरतें और अपने संस्कार के दोराहे पर खड़ी राखी बार डांसर बन जाती है। 
फिल्म सुपरवाइजर विष्णु (मानव कौल) और दीपक के आपसी वार्तालाप के माध्यम से अमीरों की संवेदनहीनता की एक-एक परत उघेड़ती है। हंसल मेहता ने अपनी पिछली फिल्म 'शाहिदÓ की तरह ही परिस्थितियों की मार्मिकता दिखाने के लिए लम्बे-लम्बे साइलेंट दृश्य रखे हैं। उनके इस प्रयास को राजकुमार राव ने अपने शानदार अभिनय से वास्तविकता का रूप दे दिया है। बीवी के बार डांसर होने का पता चलने पर पति-पत्नी के ऊंकड़ू मार बैठ रोने का दृश्य लाचारगी की बेहतरीन अभिव्यक्ति है। 
पटकथा काफी चुस्त लिखी गई है, लेकिन राखी के बार डांसर बनने की प्रक्रिया को तर्कसंगत बनाने की गुंजाइश दिखती है। पहले हाफ में सच्चाई के बेहदकरीब दिखती फिल्म मध्यांतर बाद कुछ नाटकीयता का लबादा ओढ़ लेती है। पृष्ठभूमि से बजते गाने हालात को बयां करते हैं। अभिनय की बात करें तो राजकुमार राव अपने श्रेष्ठ रूप में दिखते हैं, तो पत्रलेखा और मानव कौल भी अपनी छाप छोडऩे में सफल लगते हैं।  


स्टार : ४
प्रातःकाल में प्रकाशित 

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