Tuesday, October 20, 2015

बहाने पुकारे भइया ...

बहाने पुकारे भइया 
ले लूँ तेरी बलइया 
अपने हाथ 
चाहे जहाँ तू जाए 
वहां मेरी दुआएं 
होंगी साथ 
ज्योति फैलाये सूरज जब तक गगन से 
उतनी उमर तेरी माँगू किशन से 
सूरज पर ग्रहण आये 
तुझ पर वो भी न आये 
कोई घात
जीवन में हर पल ख़ुशी महक हो 
माथे चमकता विजय का तिलक हो 
प्रभु से विनती है मेरी 
कीर्ति हो जग में तेरी 
रातों रात  

Sunday, October 11, 2015

अब लोगों पर अंधविश्वासी की तरह भरोसा नहीं करती : ऋचा चड्ढा



क्या अब आपका संघर्ष खत्म हो गया है ?
- संषर्ष तो अब भी चल रहा है। बस उसका रूप बदल गया है।  पहले ऑटो से संघर्ष कर रही थी और अब अपनी गाड़ी से करती हूं। पहले फिल्म पाने के लिए भाग दौड़ कर रही थी, अब अपने काम को नया आयाम देने में श्रम लगा रही हूं। फिल्म इंडस्ट्री में होना मतलब लाइफ टाइम के लिए संघर्ष में होना है। इसलिए ऐसा नहीं कह सकती कि कुछ फिल्मों की सफलता और प्रशंसा के बाद मेरा संघर्ष खत्म हो गया है। यहां हर फ्राइडे के बाद करियर का भविष्य निर्धारित होता है।

आपकी पहचान टुकड़ों में हुई है। बीच के समय में हौसला कैसे बनाए रखा ?
- 'ओए लकी  लकी ओए' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के बीच चार साल का गैप है। उसमें २००८ से २०१० तक का समय मेरे लिए काफी मुश्किलों भरा रहा। मेरे पास कोई काम नहीं था। उस दौरान मैंने अपने अंदर के कलाकार को जिंदा रखने के लिए थियेटर किये, नाटक किये। किसी काम को पाने का हौसला बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी है कि उसमें आपकी रुचि लगातार बनी रहे। इसके अलावा आपकी हॉबिज और आपसे जुड़े लोगों की भी भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जिससे आप निराशा में जाने से बच जाते हैं। मेरे मुश्किल दिनों में मेरे परिजनों का बड़ा सहयोग रहा। पैसे कम होने पर पैसे भेजे, मुझसे बातचीत में उन्हें कभी लगता था कि मैं  कुछ निराश हूं, तो वो मुंबई आ जाते थे।

'मैं और चाल्र्स' कैसी फिल्म है ?
- ये एक थ्रिलर फिल्म है। क्रिमिनल चाल्र्स की कहानी है कि कैसे वो लॉ स्टूडेंट मीरा की मदद से दो- चार कैदियों के साथ देश की सबसे सुरक्षित जेल तिहाड़ से भाग जाता है। उसके बाद पुलिसकर्मी अमोल चाल्र्स की जिंदगी में भाग दौड़ शुरू करता है। चाल्र्स गोवा में पकड़ा जाता है और फिर मुंबई में उसका सामना अमोल से होता है। इसमें यही दिखाया गया है कि कैसे घटनाओं की प्लाटिंग और उन्हें अनकवर किया गया है। मैं मीरा बनी हूं और चाल्र्स का किरदार रणदीप हुड्डा निभा रहे हैं।

ग्लैमर इंडस्ट्री में होकर भी ग्लैमरस हीरोइन की पहचान ना होने को लेकर कभी कसक होती है ?
- हां, कभी-कभी ये कसक उठती है। इसकी वजह ये है कि ग्लैमरस रोल की फिल्में करने के कारण आपके पास कमाई करने के कई रास्ते आ जाते हैं। कई शोज, अपियरेंस के मौके मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं ग्लैमरस रोल की फिल्में बिल्कुल ही नहीं कर रही हूं। लेकिन उसको लेकर बहुत बेचैन नहीं हुई जा रही हूं। 'मसान' की सफलता के बाद कई लोगों ने मुझसे पूछा कि आप बड़े बजट की कमर्शियल फिल्में क्योंनहीं करतीं। मैं उन सभी से कहना चाहती हूं कि 'मसान' जैसी मीनिंगफुल अच्छी फिल्में और करना चाहूंगी।

जब पहली बार अभिनेत्री बनने का ख्याल आया, तो क्यावो ग्लैमर का आकर्षण था ?
- बचपन से ही मुझे लग रहा था कि मैं अभिनेत्री बनने के लिए ही बनी हूं। मेरे मन में आकर्षण ग्लैमर को लेकर ना होकर सिनेमा को लेकर था कि वो कौन सी बात है, जो बनावटी होते हुए भी इतना असरदायी है। ये बच्चे से लेकर बड़े तक सभी जानते हैं कि जो पर्दे पर दिख रहा है, वह बनाया हुआ है। फिर भी सभी उससे जुड़ जाते हैं।


फिल्म इंडस्ट्री में कभी ठगे जाने का अहसास हुआ ?
— हां, ये अहसास कई तरह के हैं। जैसे कुछ लोगों ने कोई काम देने का भरोसा देकर लटकाए रखा, लेकिन वो कोरा आश्वासन ही साबित हुआ। स्ट्रगल के दिनों में ऐसे कटु अनुभन होते रहते हैं। लेकिन यही अहसास हमें परिपक्व बनाते हैं।
अब मैं लोगों पर अंधविश्वासी की तरह भरोसा नहीं करती हूं।

   

Friday, October 2, 2015

हमारा समाज भगोड़ा है : लव रंजन



2011 में आई फिल्म 'प्यार का पंचनामा' के जरिये लड़का -लड़की के आधुनिक संबंधों को लेकर एक नयी बहस की शुरुआत करने वाले निर्देशक लव रंजन 'प्यार का पंचनामा २' लेकर आ रहे हैं।  फिल्म के प्रमोशन के दौरान हुई मुलाकात में उन्होंने फिल्म और समाज सहित कई मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी।  प्रस्तुत है प्रमुख अंश -  

सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है जिसके लिए 'प्यार का पंचनामा २' देखनी चाहिए ?
- 'प्यार का पंचनाम' की खासियत यह है कि ये वो बात कहती है, जो कोई और नहीं कहता। आदमी औरतों को कैसे परेशान करता है, इस पर कई फिल्में बनी हैं। लेकिन महिलाएं किस तरह पुरुषों को तंग करती हैं इसे केवल 'प्यार का पंचनामा' दिखाती है। 'प्यार का पंचनामा २' पहले से ज्यादा मजेदार है। मैंने इसे बहुत संजीदगी के बजाय मजाक में दिखाया है कि भाई देखो ऐसा भी होता है। इसके किरदार लोगों को कनेक्ट करेंगे। फिल्म की घटनाएं देखकर हर एक को लगेगा कि हां यार मेरे साथ या मेरे दोस्त के साथ ऐसा ही हुआ है। मेरा दावा है कि आप हंसते रहेंगे और आपको पता नहीं चलेगा कि फिल्म कब खत्म हो गयी। आपकी कोई दोस्त होगी या बीवी होगी तो यह फिल्म दिखाकर यह बताने का मौका मिल जाएगा कि देखो ये कई सारे बातें हैं, जो मैं तुमसे नहीं कह पाता था। अब समझ भी जाओ और मुझे हैरान-परेशान करना छोड़ दो।

'प्यार का पंचनामा'  आने के बाद आपको महिला विरोधी कहा गया। कुछ कहना चाहेंगे ?
- माफी के साथ कहना चाहूंगा कि हमारा समाज जो है, वो एक भगोड़ा किस्म का समाज है। इससे ज्यादा भगोड़ा मैंने दुनिया में कहीं नहीं देखा। यह समाज किसी चुनौती पर बहस करने को तैयार होने के बजायअपनी सुविधानुसार रास्ता पकड़ निकल पड़ता है। मैंने एक बहस की शुरुआत की। मेरी दूसरी फिल्म 'आकाशवाणी' किसी ने नहीं देखी। वो तो पूरी तरह से लड़कियों के ऊपर थी कि पढ़ी-लिखी लड़कियां भी किस तरह मां-बाप के कहनेपर शादी कर लेती हैं। तब तो मुझे किसी ने फेमिनिस्ट, लड़कियों का शुभ चिंतक नहीं कहा। देखिये कोई भी फिल्मकार कल्पना से फिल्में बनाता है। ये उसका रचना पक्ष होता है। उसे किसी के निजी व्यक्तित्व से जोडऩा मैं सही नहीं मानता। मैं ऐसी बातों से विचलित नहीं होता। जो बातें पीढिय़ों से चली आ रही हैं, उसे टूटने में समय लगेगा। जैसे तराजू के एक पलड़े में कुछ पहले से रखा है और दूसरे को भी बराबर करने के लिए हम उसमें कुछ रखते हैं, तो वो एकाएक बराबर नहीं हो जाता। पहले वो झूलता है। मैं आशान्वित हू कि एक दिन ऐसा समय आएगा। क्योंकि समानता तो होनी ही चाहिए। 

'प्यार का पंचनामा'  से पार्ट २ में समानता और भिन्नता क्या है ?
- समानता सुर की है, आत्मा की है और मुद्दे की है। तीनों किरदार नये हैं और उनकी कहानियां भी अलग हैं। 'प्यार का पंचनामा' के मध्यांतर बाद मैं कुछ ज्यादा संजीदा हो गया था। लेकिन इस बार मैंने थोड़े हल्के तरीके सेमनोरंजक रूप से बातें कही है। ताकि किसी को कुछ चुभे नहीं। मैंने हंसते-हंसते सारी बातें कहने की कोशिश की है।

 पार्ट १ की बड़ी सफलता आज आपके लिए दबाव है या चुनौती ?
- उम्मीद है। उसका कारण है कि पार्ट वन जब आया था, तब कोई न तो मुझे जानता था और न ही उस फिल्म को। 'प्यार का पंचनामा' के रिलीज के बाद तुरंत लोग देखने भी नहीं आये। देखकर आये लोगों ने औरों के इसके बारे में बताया तब फिल्म लंबे समय तक थियेटरों में लगी रहकर हिट हुई। लेकिन इस बार लोग मुझे और 'प्यार का पंचनामा २' दोनों के बारे में जान गये हैं। लोगों में इसको लेकर उत्साह है, तो मैं यही कहूंगा कि मुझे उम्मीद है कि दर्शक ये फिल्म देखने जरूर आएंगे।
चार साल बाद 'प्यार का पंचनामा' का सिक्वल बनाने का कारण सफलता को लेकर कोई रिस्क से बचना तो नहीं रहा ? क्योंकि आप एक मजबूत आधार पर चल रहे हैं...
- ये बात पहले से ही थी। बस हमारा स्टैंड ये था कि हम बैक टु बैक नहीं बनाना चाहते थे। हम बीच में कुछ और बनाना चाहते थे।  इसमें चार क्यापांच साल भी लग सकते थे। फिल्म लाइन में सब कुछ आपके हाथ में नहीं होता। कई कारणों से काम लटक जाता है। सबसे जरूरी बात आपके पास स्क्रिप्ट होनी चाहिए और स्क्रिप्ट के बारे तो कोई निश्चित फार्मूला नहीं होता। यह ३० दिन में भी पूरा हो जाएगा और ६ महीने भी लग सकते हैं। ऐसे में जब तक आपके हाथ में पूरी तरह से तैयार स्क्रिप्ट नहीं आ जाती आप फिल्म बनाने के बारे में कैसे सोच सकते हैं। यही तो मुख्य आधार है। 

पार्ट वन की सफलता में उसके संवादों का बड़ा योगदान रहा। आप संवादों से दर्शकों को बांधने में ज्यादा यकीन करते हैं या सिचुएशन से प्रभावित करने में ?
- मेरा मानना है कि अगर आप दोनों में से किसी पर कम और ज्यादा ध्यान रखते हैं, तो आप फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। यदि मैं सिर्फ संवादों से दर्शक को बांधने की कोशिश करुंगा, तो हो सकता है उन्हें हंसी आ जाए, लेकिन उससे असरदायी मनोरंजन नहीं हो सकता। आपको मजा संवादों से आता है, लेकिन कनेक्टिविटी सिचुएशन और किरदारों से आती है। इस लिए जैसे दर्शक को बांधने के लिए अच्छे संवाद की जरूरत है, उसी तरह उन्हें प्रभावित करने के लिए सिचुएशन भी महत्वपूर्ण है। अपवाद स्वरूप ऐसा हो जाता है कि अच्छी सिचुएशन औसत संवाद को संभाल लेती है और कभी संवाद इतने सटीक होते हैं कि अपनी रवानी में दर्शकों को बहा ले जाते हैं, जिससे सिचुएशन की कमी छिप जाती है।

आपकी सभी फिल्मों में कार्तिक और नुशरत रहे हैं। इन पर इतना भरोसा का कारण क्या है ?
- 'प्यार का पंचनामा' में तो ये दोनों भी अन्य छह कलाकारों की तरह मेरे कास्टिंग डायरेक्टर के जरिये आये थे। फिर उसके बाद इनके साथ एक कम्फर्ट लेबल आ गया। दोनों ही मेहनती और अच्छे कलाकार हैं। दोनों वक्त देने के लिए तैयार रहते हैं। मेरे लिए कमिटमेंट बहुत मायने रखता है। जो आप मेरे लिए वक्त दिये हैं, मै चाहता हूं कि बीच में आप उसमें कोई व्यवधान न डालें। टालमटोली या कामचोरी के बीच काम करना मेरे लिए मुश्किल हो जाएगा। सिर्फ ये ही नहीं बल्कि मेरे कैमरामैन, संगीतकार, एडिटर और कोरियाग्राफर भी नहीं बदले हैं। 

और प्रोड्यूसर भी । कैसा रिश्ता है उनके साथ ?
- सात साल पहले की बात है मैं और अभिषेक दोनों यंग थे। दोनों न्यूयार्क से लौटे थे। हमारी पहचान एक दोस्त की शादी में हुई थी। जहां तक रिश्ते की बात है, प्रोड्यूसर-डायरेक्टर की वही जोड़ी अच्छी हो सकती है जो लड़ाइयां झेल ले। हममें अब भी लड़ाई होती हैं, बस प्रकृति बदल गयी है। आज हम दोनों एक दूसरे की कमियां और खूबियां जानते हैं और उसी रूप में एक दूसरे को स्वीकार कर चुके हैं। काम के प्रतिईमानदारी दोनों की सेम है। बतौर प्रोड्यूसर अभिषेक पैसा कमाना चाहता है, लेकिन अच्छी फिल्म बनाकर और मैं एक ऐसी अच्छी फिल्म बनाना चाहता हूं, जो पैसा भी कमाये। अभिषेक की एक अच्छी बात बताऊं, कई बार इसके मना करने के बाद भी मैंने वो काम किया और गलत साबित हो गया। लेकिन ये बाद में मुझे ये जताने नहीं आया। तो इससे एक सम्मान और विश्वास का रिश्ता कायम हो जाता है। 

आज आप जो हैं, उसकी बुनियाद कब पड़ी ?
-(हंसते हुए) १९८१ में जब मैं पैदा हुआ। नौवीं कक्षा में था, जब राइटिंग में रुचि हुई और कविता, शेर लिखने की कोशिश करने लगा। मेरी मां भी डॉक्ट्रेट की हैं तो इस दिशा में घर में ही माहौल मिल गया और सपोर्ट भी मिलता रहा। दूसरे मैं फिल्में भी बहुत देखता था। शायद उसका भी असर है।