Friday, October 17, 2014

रोमन में लिखा संवाद फाड़ देता हूं : अमिताभ बच्चन

 
रोमन में लिखा संवाद फाड़ देता हूं : अमिताभ बच्चन

अपने ७२ वें जन्मदिन पर बिग बी ने अपने बंगले पर अति व्यस्तता के बीच बातचीत में सिनेमा, समाज, सोशल मीडिया और हिंदी के विषय में अपनी राय रखी। साथ ही हिंदी सिनेमा की कुछ विशिष्टताओं का भी जिक्र किया, जिनके कारण दुनिया में हमारी पहचान बनी हुई है।

-जन्मदिन पर पीछे मुड़कर कुछ देख रहे हैं?
क्या देखना है पीछे मुड़कर। ज्यादातर मैं पीछे नहीं देखता। जो बातें हैं, वो सभी को मालूम हैं। हां पीछे देखना होगा तो माँ-बाबूजी की कुछ यादें हैं, जिनमें उनसे कुछ सीखा है, वो आज भी प्रोत्साहन देती हैं। आज आराध्या है, पोती-पोते का होना अपने आप में एक अलग जीवन होता है। उनके साथ रहने की एक बेताबी रहती है। उनके साथ समय बिताना अच्छा लगता है।

-सोच प्रभावित करने में फिल्मों की क्या भूमिका है?
मेरे बाबूजी रोज शाम को ड्राइंग रूम में फिल्म देखते थे। मैं पूछता था कि आप रोज सिनेमा क्यों देखते हैं ? तो उन्होंने कहा कि यहां तीन घण्टे के अंदर सत्य और असत्य, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, सब कुछ पता चल जाता है। यही प्रबलता है भारतीय सिनेमा की। यहां रिश्तों की बात होती हैै। किसी फिल्म द्वारा सोच प्रभावित होने का एक उदाहरण बताना चाहूंगा। 'बागबानÓ की रिलीज के एक हफ्ते बाद रवि चोपड़ा के यहां रात के तीन बजे लंदन से एक भारतीय युवक ने फोन कर कहा कि मैं अभी-अभी 'बागबानÓ देखकर निकला हूं। मैं और मेरे पिता एक ही शहर में रहते हैं। किन्हीं कारण वश मैं पिछले २५ सालों से उनसे नहीं मिला हूं। लेकिन अभी मैं अपने पिता को फोन कर उनसे माफी मांगने जा रहा हूं। इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है।

-ब्लॉग पर अपनी सक्रियता को जिम्मेदारी मानते हैं ?
जिम्मेदारी कोई नहीं है। किसी ने हमें बताया कि आपके नाम की १००-२०० वेबसाइटें खुली हुई हैं। लेकिन उसमें असली कोई नहीं है। इसी चर्चा में मुझे ब्लॉग का सुझाव मिला और फिर शुरू हो गया यह सिलसिला, जो आज एक परिवार बन गया है। ब्लॉग पर बिना रुके लिखते २०७० दिन हो गये हैं। अस्पताल गया तो भी लिखा । अब डर सा हो गया है कि अरे यार आज ब्लॉग नहीं लिखा, जल्दी चलो वो इंतजार करते होंगे। कभी यदि थोड़ी देर हो जाती है, तो वो लिखकर मुझे भेजते हैं कि क्या हुआ भाई साहब, सो गये हैं क्या ? तो इस तरह का एक रिश्ता बन गया है।

-क्या सोशल मीडिया के कारण फिल्म को वस्तुनिष्ठ रखने का दबाव बढऩे वाला है? क्योंकि यदि 'हैदरÓ अगर १० साल पहले आती, तो इसका विरोध इतना व्यापक रूप नहीं ले पाता।
-हां अब ये सारी चीजें होंगी ही। क्योंकि अब माध्यम काफी बढ़ गया है। बहुत से ऐसे स्थान हैं, लोग हैं, जिनके बारे में हम नहीं जानते थे। वहां के लोगों की सोच के बारे में हमें पता नहीं चल पाता था। लेकिन सोशल साइट के रूप में आज हर इंसान को एक माध्यम मिल गया है, जिस पर वो अपनी बात को व्यक्त कर सकता है। ये अलग बात है कि हमेशा वो सही न हो। फिर आप लोग भी हैं, जो उस बात को पकड़ लिये, तो आप लोगों के ऊपर है कि उसकी बात को बढ़ावा दें या न दें। पहले केवल आप पत्रकारों के माध्यम से जानकारियां मिलती थी, लेकिन आज प्रत्येक इंसान महत्वपूर्ण हो गया है।

अपनी इमेज को लेकर अतिरिक्त सावधान रहे हैं ?
-इमेज क्या होती है? मैं इमेज के बारे में कभी नहीं सोचता और न ही इसे मानता हूं। सब अपना काम करते हैं। सब अपनी तरह से अपनी जिंदगी जीते हैं।

क्या हिंदी के प्रचार में फिल्म की भूमिका सर्वश्रेष्ठ है?
-मेरे ख्याल से भाषा के प्रचार का पूरा श्रेय केवल एक ही माध्यम को देना सही नहीं है। मैं तो मानता हूं कि आपका माध्यम भी इसमें काफी सहायक है। मुझे आज भी कुछ सीखना होता है, तो अखबार पढ़ता हूं। संपादकीय पृष्ठ पर अलग दृष्टिकोण मिलता है। हिंदी के संदर्भ में देवनागरी को लेकर एक संकट देख रहा हूं। आज कल फिल्मों के सेट पर अक्सर संवाद रोमन में लिख कर दिये जा रहे हैं। मुझे जब भी रोमन में लिखा संवाद मिलता है, मैं तुरंत उसे फाड़ कर फेंक देता हूं । मैं कहता हूं, भइया हमको हमारा डायलाग दो। ये हमारी समझ में नहीं आ रहा । हालांकि मैं पढ़ सकता हूं, लेकिन जो बात देवनागरी में लिखने से आती है, उसकी अलग ही बात है। चंद्र बिंदु अंग्रेजी में कहां है ? तो जो उसमें है ही नहीं उसे हम बोलेंगे कैसे? प्रोडक्शन वालों में मुझको लेकर एक डर हो गया है। वो पहले से ही मुझे हिंदी में संवाद देने की तैयारी में रहते हैं।

हॉलीवुड की फिल्मों के यहां आगमन को किस रूप में देखते हैं?
-हॉलीवुड की फिल्में अपने साथ एक संकट लेकर चलती हंै। वहां की फिल्में जहां जाती हैं, स्थानीय फिल्म इंडस्ट्री को खत्म कर देती हैं। लेकिन हमारी कुछ सांस्कृतिक विशेषताएं हैं, जिसके कारण हमारी इंडस्ट्री हमेशा आबाद रहेगी। वो 'टाइटेनिकÓ बना सकते हैं, रोबोटिक फिल्में बना सकते हैं। लेकिन कोई कल्चरल फिल्म बनाकर दिखाएं? कोई इमोशनल फिल्म बनाकर दिखाएं? वो इसमें हमारी बराबरी नहीं कर सकते। पश्चिम के जो लोग कभी हमारी फिल्मों की निंदा करते थे,आज हमारे प्रशंसक बने हुए हैं। मुझे याद है जब ३० साल पहले हम विदेशों में शूट के लिए जाते थे, तो वहां हमें अजीब तरह की आलोचना सुननी पड़ती थी कि क्या नाच-गाना करते हैं। लेकिन अब देखिये दुनिया भर में जितने फिल्म फेस्टिवल होते हैं, वहां भारतीय फिल्मों का नाम आता है। उसके आयोजक महीनों पहले यहां आकर जानकारियां लेते हैं और निमंत्रण देते हैं।    
 
  

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