Saturday, July 12, 2025

संपर्क भाषा से कैसा खतरा ?

अश्वनी राय

सामाजिक व्यवहार का प्रमुख आधार संपर्क भाषा ही होती है, जिसके जरिए विचारों की यात्रा होती है. महाराष्ट्र के प्राथमिक विद्यालयों में त्रिभाषा सूत्र के अंतर्गत हिंदी की अनिवार्यता का मुद्दा तो राज्य सरकार ने हल कर दिया, लेकिन हिंदी बोलने को लेकर एक व्यक्ति की पिटाई से इस विवाद का रूप बदल गया. मुंबई में हिंदी भाषा का विरोध करने वाले इसे मराठी अस्मिता और पहचान के लिए खतरा बताते हैं. निश्चित रूप से अपने प्रांत की अस्मिता बचाए रखना हर एक का कर्तव्य होना चाहिए. लेकिन हिंदी विरोधियों को संपर्क भाषा के रूप बोली जा रही हिंदी से महाराष्ट्र को अब तक किस तरह का नुकसान हुआ है, इसका पैमाना भी सामने रखना चाहिए. पिछले साल ही केंद्र सरकार ने मराठी भाषा को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया. इससे स्पष्ट है कि मराठी भाषा काफी सशक्त, समृद्ध और प्राचीन है. इसकी विरासत अप्रतिम रूप में गौरवशाली रही है. फिर संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के व्यवहार से मराठी भाषा के अस्तित्व पर संकट कैसे आ सकता है? इसे हिंदी विरोधियों को स्पष्ट करना चाहिए.  देश के स्वतंत्रता आंदोलन के समय हिंदी पूरे देश को जोड़ने का माध्यम रही और आज भी पूरे देश में संवाद करने के लिए हिंदी का कोई विकल्प नहीं है. क्योंकि 2011 की जनगणना के अनुसार देश में बोली जाने वाली भाषाओं में दूसरे नंबर पर बांग्ला 8.03% और तीसरे स्थान पर मराठी 6.86% हैं. ये दोनों भाषाएं हिंदी 43.63% से काफी पीछे हैं.  प्राथमिक विद्यालयों में हिंदी पढ़ाने की अनिवार्यता के परिणामों की अनुकूलता-प्रतिकूलता की बात तो कुछ हद तक समझी भी जा सकती है.  लेकिन दो विभिन्न भाषी लोगों के बीच संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग से मराठी संस्कृति पर आघात का तर्क समझ पाना मुश्किल है. स्थानीय भाषा न जानने से हर व्यक्ति को अपनी प्रगति में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इसके लिए जबरदस्ती करने की जरूरत नहीं है.

हिंदी से सबसे अधिक प्रभावित भोजपुरी

देश में हिंदी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाली भाषा भोजपुरी है. कस्बे और शहर ही नहीं आज गांवों से भी भोजपुरी के बहुत सारे शब्द दैनिक व्यवहार से गायब होते जा रहे हैं. भोजपुरी शैली में हिंदी के शब्द अपनी जगह बनाते जा रहे हैं. भोजपुरी तो कभी स्कूल-कॉलेज की भाषा भी नहीं रही. फिर भी भोजपुरी संस्कृति आकर्षक बनी हुई है. इसका प्रमाण निरंतर बढ़ते भोजपुरिया टीवी चैनल दे रहे हैं. ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि संपर्क भाषा के रूप में हिंदी से मराठी भाषा और संस्कृति को कैसे खतरा हो सकता है? 

सरकारी प्रोत्साहन

महाराष्ट्र देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां हिंदी सहित कई पर प्रांतीय भाषाओं के संवर्धन के लिए राज्य के सांस्कृतिक मंत्रालय के अधीन साहित्य अकादमियों का गठन किया गया है. इसके तहत प्रतिवर्ष विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों को उनकी कृतियों के लिए पुरस्कार स्वरूप अच्छी नकद राशि प्रदान की जाती है. इसके अलावा राज्य सरकार की तरफ से कमजोर आर्थिक स्थिति वाले प्रतिभाशाली रचनाकारों की पुस्तकों के प्रकाशन का प्रावधान भी किया गया है. देश के संविधान में भी हिंदी के प्रसार की बात कहते हुए इसे देश में राजभाषा का दर्जा दिया गया है. गौरतलब है कि मराठी की लिपि भी हिंदी की तरह देवनागरी ही है और ये दोनों भाषाएं संस्कृत से ही निकली हुई हैं.

सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पक्ष

महाराष्ट्र की सबसे प्रमुख सांस्कृतिक पहचान गणेशोत्सव आज पूरे भारत में फैल चुका है. इस सांस्कृतिक विस्तार के वाहक न तो हिंदी का विरोध करने वाले दल रहे, न ही महाराष्ट्र की सरकार. अब लखनऊ में भी गणपति पूजा के दौरान 'गणपति बप्पा मोरया' की गूंज सुनाई देती है. ऐतिहासिक संदर्भों में छत्रपति शिवाजी महाराज का भव्य स्मारक यूपी और हरियाणा में वहां की सरकारों के सहयोग से बनाया जा रहा है. यूपी की योगी सरकार ने स्वातंत्र्य वीर सावरकर की जीवनी स्कूली पाठ्यक्रमों शामिल करने का प्रावधान किया. डॉ आंबेडकर की जन्मभूमि महाराष्ट्र और कर्मभूमि दिल्ली रही, लेकिन उनकी तस्वीरों को अपने पोस्टर-बैनर पर लगाकर दलित के नेतृत्व वाली पहली सरकार यूपी में बनी. यह संपर्क भाषा के जरिए विचारों की यात्रा का ही परिणाम रहा. इसलिए यह सभी को समझना होगा कि संपर्क भाषा भी एक संस्कृति है. एक राष्ट्र के अंदर इसे जन्म, कर्म और परिणाम क्षेत्र की सीमाओं में सीमित नहीं किया जा सकता.

Tuesday, January 2, 2024

 पराक्रमी हिन्दुओं को भूले-भटके समझते हैं कांग्रेसी- वीर सावरकर


06 जनवरी को स्वातंत्र्यवीर सावरकर का मुक्ति शताब्दी दिवस है। वी.डी. सावरकर भारत की आजादी की लड़ाई के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने पराधीनता की रात में स्वाभिमान की ज्योति जलाई।  वीर सावरकर के साहस ने स्वतंत्रता की लड़ाई को एक नई दिशा दे दी। सावरकर ही वो पहले नेता थे, जिन्होंने भारत का लक्ष्य पूर्ण राजनैतिक स्वतंत्रता बताने का साहस दिखाया और इसकी प्राप्ति के लिए आंदोलन भी छेड़ा। उनके अदम्य साहस के कारण ही लोगों ने उनके नाम के साथ वीर की उपाधि जोड़ दी। वीर सावरकर एक निष्ठावान स्वतंत्रता सेनानी, कुशल राजनीतिज्ञ और विद्वान लेखक थे। हिन्दू राष्ट्रवाद के वे प्रमुख जननायक थे। राजनीति और हिन्दुत्व के बाबत वे अपनी राय बेलाग- लपेट व्यक्त करते थे। उनके कुछ ऐसे ही विचार यहां प्रस्तुत हैं-


हिंदू प्रतिनिधि न चुनने की भूल प्राण घातक बनी

यथार्थ स्थिति का चित्रण करते वीर सावरकर ने कहा था, ''संपूर्ण देश में मुसलमानों के हित रक्षार्थ दंगे-फसाद हुए किंतु उसका प्रतिकार करने के लिए एक भी हिंदू आगे नहीं आया। उसी प्रकार हिंदू प्रतिनिधि न चुनने की यह भूल हिंदुओं के लिए प्राण घातक बनी। उदाहरण के लिए पंजाब और बंगाल के मुसलिम मंत्रियों के कृत्य देखिए। वे सरेआम भरे बाजार मुसलमानों का पक्ष लेकर हिंदुओं को तंग करने की धमकियाँ दे रहे हैं। इसके विपरीत संयुक्त प्रदेश (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के कांग्रेसी हिंदू मंत्री हिंदुओं की बात नहीं सुनते। कांग्रेस के प्रतिनिधियों को सरेआम यह कहने में भी लज्जा आती है कि हम हिंदू हैं। इतना ही नहीं, स्वयं को हिंदू कहलाना वे अराष्ट्रीय समझते हैं। यदि वे प्रामाणिक रूप से ऐसा सोचते हैं तो हमारा यही कहना है कि वे चुनाव के समय भी हिंदू मतदाताओं के पास हिंदू होने के नाते से वोट न माँगें। इस इच्छुक को-जो चुनाव के पूर्व स्वयं को हिंदू कहलाता है और निर्वाचित होने पर अपना हिंदुत्व नकारता है ।''


पराक्रमी हिन्दुओं को भूले-भटके समझते हैं कांग्रेसी

हिंदू सभा, आर्यसमाज, हिंदू संघटन जैसे शब्द भी कांग्रेसियों को तिरस्करणीय लगते हैं। वे कहते हैं कि आर्यसमाज के कारण ही मुसलमान चिढ़ते हैं। वे शिवाजी, राणा प्रताप तथा अन्य पराक्रमी हिंदू देशभक्तों को भूले-भटके समझते हैं। और कहते हैं कि मुल्ला तथा मौलवियों ने मुसलमानी शब्दों का प्रभाव वृद्धिंगत करके हिंदुस्थानी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। ये मंत्री नागरी लिपि का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि मुसलमानों को वह अप्रिय है। मुसलमानी भावना का आदर करने के लिए उन्होंने 'वंदेमातरम्' राष्ट्रगीत काट-छाँट दिया और हिंदुओं की भावनाओं को कुचल डाला। इस प्रकार हिंदू मतदाताओं द्वारा निर्वाचित कांग्रेसी प्रतिनिधि हिंदू मतदाताओं की भावनाएँ पैरों तले रौंदकर जिन्ना, हक प्रभृतियों को आश्वस्त कर रहे हैं कि वे गोवधबंदी कदापि नहीं करेंगे। 


कांग्रेस की दुष्ट प्रवृति से रक्षा का उपाय

कांग्रेस की तुष्टिकरण का समाधान बताते उन्होंने कहा, ''कांग्रेस की इस दुष्ट प्रवृत्ति से रक्षा करने का एक उपाय है। वह यह कि हिंदू उन्हें अपना वोट न दें और अपने प्रतिनिधि के रूप में उन्हें निर्वाचित न करें। इसके विपरीत जो प्रकट रूप में एक संघटित पक्ष के रूप में हिंदू हित की सुरक्षा का आश्वासन देते हैं उस हिंदू महासभा इच्छुकों को अपने वोट दें। कांग्रेस में कुछ लोग भले हैं परंतु उन लोगों की भलाई पर गौर न करते हुए हम कांग्रेस की यह हिंदू विघातक नीति देखें जिससे वे बँधे हुए हैं और उससे हिंदू हित की रक्षा के लिए हिंदू सभा को मत दें।''


हिन्दू ही कांग्रेस को नीचे लाएंगे

वीर सावरकर की दूरदर्शिता ही थी जब उन्होंने कहा कि हिंदू सभा सदस्यों को एक बात बताता हूँ। इस चुनाव में भले ही आपको सफलता न मिले तथापि धीरज न खोते हुए अगले चुनाव में लड़ने की तैयारी करें ताकि अगले चुनाव में वे हिंदू मंत्रिमंडल बना सकेंगे इसमें मुझे रत्ती भर भी संदेह नहीं। हिंदू मतदाताओं ने ही कांग्रेस को सत्ताधीश बनाया है। परंतु कांग्रेस द्वारा हिंदुओं का विश्वासघात करने से हिंदू ही उसे नीचे खींचेंगे और शक्तिशाली हिंदू मंत्रिमंडल स्थापित कर सकेंगे।


कांग्रेस हिंदुओं की प्रतिनिधि नहीं

कांग्रेस की ओर से प्रायोजित एक गोलमेज परिषद के संदर्भ में वीर सावरकर ने कहा था,  ''कांग्रेस को हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करने का अधिकार नहीं है। यद्यपि कांग्रेस हिंदू मत पर निर्वाचित हुई है तथापि उसने हिंदू हित रक्षा का भरोसा कभी भी नहीं दिया। इसके विपरीत यह कांग्रेस, जो मुसलमानों की अनेक अन्यायी माँगें मान्य करती है, हिंदुओं की एक भी न्याय सम्मत माँग स्वीकार नहीं करती। इसीलिए मैं स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि ब्रिटिश प्रशासन और मुस्लिम लीग, उसी तरह कांग्रेस और मुसलिम लीग अथवा इन तीनों में जो भी कुछ करारनामे होंगे वे हिंदुओं के लिए बंधनकारक न हों। इस तरह की परिषदों में एक समान अधिकारिणी संस्था के रूप में हिंदू महासभा को आमंत्रित किया जाए और वही प्रस्ताव हिंदुओं के लिए बंधनकारक होंगे जो वह स्वीकार करेगी।''


अपने हाथ में लेनी होगी राजसत्ता

 १ अप्रैल, १९४० के दिन वीर सावरकर ने महाराष्ट्रीय हिंदू सभा को सबल एवं कार्यक्षम बनाने की दृष्टि से एक पत्रक निकाला, जो सभी शाखाओं का मार्गदर्शक है। उसका आशय इस प्रकार है-

"हिंदू महासभा की कार्यशक्ति में वृद्धि करते हुए हिंदू राष्ट्र की रक्षा की शक्ति उसमें लाने के लिए आज सबसे प्रमुख एवं आवश्यक बात है कि आज जो राज्यसत्ता प्राप्त होगी उसे हाथ में ले लें। हिंदुओं के न्याय अधिकार रक्षण का व्रत प्रकट रूप से धारण करते हुए चुनाव में खड़े हिंदू संघटक पक्ष को यदि प्रत्येक हिंदू स्त्री-पुरुष मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करे तो हिंदुस्थान के कम-से-कम सात-आठ प्रांतों में हिंदू संघटक पक्ष के हाथ में प्रादेशिक सत्ता आएगी और आज अनेक अन्याय-अत्याचारों तथा दंगा-फसादों से अहिंदुओं द्वारा हिंदू जनता जो उत्पीड़ित है उसमें से नब्बे प्रतिशत हिंदुओं की मुक्ति लगे हाथ प्राप्त की जा सकती है। हिंदू राष्ट्र में नया जीवन और प्रबल आत्मविश्वास का संचार होगा। हिंदुओं का बदला हुआ दबदबा संपूर्ण हिंदुस्थान भर अवश्य होगा।


कट्टर हिंदू संघटक पक्ष को ही करें वोट 

वीर सावरकर कहते थे कि जिस तरह और जब तक मुसलमान मतदाता कट्टर मुसलमान को ही अपना मत देता है, उसी तरह हिंदू मतदाता को भी कट्टर हिंदू संघटक पक्ष को ही अपना वोट देना चाहिए। अन्यथा हिंदुओं का प्रबल अभ्युत्थान होना असंभव है। सौभाग्यवश हिंदू मतदाता संघ की समझ में यह सूत्र आ गया है।

-अश्वनी राय

Tuesday, April 12, 2016

कॉमेडी को किसी दायरे में बांधना उचित नहीं : वीर दास

संता बंता के जोक से तो सभी परिचित हैं।  लेकिन फिल्म 'संता बंता' की  क्या खासियत है ?
- फिल्म की खासियत बताऊँ तो  इसकी कॉमेडी बहुत सिम्पल है, इनोसेंट है। इसमें कोई डार्कनेस नहीं है और न ही किसी तरह की होशियारी है। इसके दोनों पात्रों का दिल बिल्कुल सच्चा है, साफ है। कई सफल कॉमेडियन एक साथ काम किये हैं। फिल्म की शूटिंग फिजी के अच्छे लोकेशन में की गई है। ये बहुत स्वीट किस्म की फिल्म है। संता बंता दो दोस्त हैं। संता ने बंता को बचपन से सम्भाला है . दोनों पंजाब में रहे हैं . सरकार ने उन्हें एक सीक्रेट मिशन पर फिजी जाने के लिए हायर किया है।
आप एक सफल स्टैंडअप कॉमेडियन हैं। आपके लिए तो ये फिल्म आसान रही होगी ?
-आसान तो कोई फिल्म नहीं होती। दूसरे मैं पंजाबी भी नहीं हूँ। ऐसे में मुझे डॉयलॉग और लुक पर काफी काम करना पड़ा। बोमन के साथ मैंने पहले कभी काम नहीं किया था। लेकिन हम दोनों के बैकग्राउंड थिएटर है तो रिहर्सल भी किये थे।

आजकल कॉमेडी को लेकर विवाद भी हो रहे हैं।  क्या इसके लिए भी कोई आचार संहिता होनी चाहिए ?
-कॉमेडी के लिए किसी ना किसी को आधार बनाना ही पड़ता है। दर्शक को समझना चाहिए कि हर एक जोक किसी के ऊपर ही बनाया जाता है।  मैं नहीं समझता की कॉमेडी को किसी तरह के दायरे में बांधना चाहिए। अगर किसी को कोई जोक नहीं पसंद है, तो वो स्वतंत्र है कि उसे ना देखे। 

स्टैंडअप कॉमेडी और थियेटर की चुनौतियों में किस तरह की समानता और भिन्नता देखते हैं ?
-थियेटर में कई लोग होते हैं, जिनसे आपको मदद मिलती रहती है। सारा दारोमदार केवल एक व्यक्ति पर नहीं होता। थियेटर में सबकुछ एक प्लान के तहत सुनिश्चित होता है। थियेटर इंडिया में बहुत पुराना है। इसका आर्ट लेवल बहुत ऊंचा है। थियेटर दर्शक को गंभीर सोच में ले जा सकता है। लेकिन स्टैंडअप कॉमेडी में आप अकेले होते है। दूसरे इसकी दिशा भी पूर्व निर्धारित नहीं होती। आपको ऑडियंस का मूड भांपते हुए चलना पड़ता है। इसका ओर-छोर कहीं भी जा सकता है। हमारे यहां स्टैंडअप कॉमेडी नयी है। इसमें हमारा मकसद दर्शकों को सिर्फ हंसाना होता है। 

आपके पॉजीटिव और निगेटिव पॉइंट क्या हैं ?
-मेरा पॉजीटिव पॉइंट है कि मैं हमेशा एक्साइटेड रहता हूं। काम को लेकर सीरियस हूं और बहुत ही मेहनती हूं। मुझमें निगेटिव बात ये है कि मैं सोता बहुत कम हूं। घर पर ज्यादा समय नहीं दे पाता। क्योंकि कई करियर है। सबको संभालते चलना है। 

आप 2007 से फिल्म इंडस्ट्री में हैं। अपना मूल्यांकन किस तरह कर रहे हैं ?
 - देखिये मैंने कभी नहीं सोचा कि फिल्मों में आउंगा। इसलिए मेरी कोई लिस्ट नहीं है। आप इस इंडस्ट्री को देखिये, एक तरह से ये फैमिली ओरिएंटेड इंडस्ट्री लगती है। नजर दौड़ाइये कितने सेलीब्रिटीज के लड़के-लड़की भरे पड़े हैं। यहां हर एक का कोई गॉड फादर है। ऐसे में मैं अपने को खुश किस्मत मानता हूं कि मैं बिना फिल्मी बैकग्राउंड के यहां हूं।

आपके मुकाम में मेहनत और किस्मत का औसत क्या है ?
-मैं १०० फीसदी अंक अपनी मेहनत को दूंगा। क्योंकि मैंने अपने भाग्य के बारे में कभी सोचा नहीं। अगर आप ये सोचेंगे कि मेरी किस्मत कहां से आएगी, तो पागल हो जाएंगे। फिर आप न्यूरोलॉजी करने लगेंगे। मेरा मानना है कि  बस मेहनत पर फोकस करो और करते जाओ।

इस फिल्म की शूटिंग का अनुभव कैसा रहा ?
-बहुत अच्छा रहा। बोमन से मैंने काफी कुछ सीखा। जॉनी लीवर जी का मैं बचपन से फैन रहा हूं। नेहा और लिसा फनी हैं। फिजी हमने बहुत इंजॉय किया। 

एक स्टैंडअप कॉमेडियन में खास क्या होना चाहिए ?
- सबसे महत्वपूर्ण ये है कि जो आपके चश्मे हैं, उनसे आप जिंदगी के बीच क्या देखते हैं। उससे आपको क्या दिखता है। वो अगर स्पेशल न हो तो फिर आप अच्छे कॉमेडियन नहीं बन सकते ।

जोक को लेकर संता बंता जाना पहचाना नाम है। क्या इसी टाइटल से आ रही फिल्म को भी कोई फायदा होगा ?
 -पहले हमने ये सोचा था कि जो इसका टाइप ऑफ़ ह्यूमर है उसे न लिया जाय। यह फैमिली फिल्म है, बच्चों की फिल्म है। संता बंता जोक की एक बड़ी पहचान है, तो उससे पब्लिसिटी में फायदा होना ही है . लेकिन जिस तरह से इसे डायरेक्ट किया गया है  उससे आप फिल्म देखकर इसकी तारीफ़ करेंगे।       

Saturday, January 23, 2016

एक मुलाकात जावेद जाफरी के साथ


'लव फॉरएवर' की सबसे महत्वपूर्ण बात जो ये फिल्म करने का कारण बनी ?
—कहानी क्या है, आपका रोल क्या है, डायरेक्टर और प्रोड्यूसर कौन है? ये चार बाते ही कोई फिल्म साइन करने से पहले महत्वपूर्ण होती है। यही मैंने भी किया। इसकी कहानी कोई बिल्कुल नयी चीज नहीं लेकर आ रही है, हां इंट्रेस्टिंग है। मेरा रोल एक रॉ एजेंट का है। उसे प्राइम मीनिस्टर की बेटी की हिफाजत के लिए भेजा गया है। वहां उस लड़की की सुरक्षा में एक लेडी भी है और वो इस रॉ एजेंट की पूर्व पत्नी है। बात-बात में दोनों में नोंक-झोंक होती रहती है। लेकिन दोनों का एक ही मिशन है, तो साथ काम भी करना है। ये बात मुझे काफी जमी और मैं यह फिल्म करने को तैयार हो गया।

कोई एक समय सीमा तय कर प्यार नहीं करता।  फिर 'लव फॉरएवर' 'टाइटल का क्या औचित्व् ?  
- देखिये भावनाओं में कोई लॉजिक नहीं होता। आप कई गानों में देखेंगे जैसे ' तेरी आंखों के सिवाय दुनिया में रखा क्या है' अब कोई इसका हू बू हू मतलब निकाल कर सवाल कर सकता है, लेकिन यह एक अहसास को व्यक्त करने के लिए लिखी गई लाइन है। इसी तरह 'लव फॉरएवर' टाइटल भी प्यार के जज्बात को व्यक्त करने के लिए रखा गया है।

मिमिक्री में आपकी एक पहचान है।  आपके ख्याल से इसके लिए ख़ास योग्यता क्या होनी चाहिए ?
- ये बिल्कुल पॉवर ऑफ ऑब्जर्वेशन से जुड़ा हुआ विषय है। मैंने केवल मिमिक्री ही नहीं की है, बल्कि देश की कई भाषाओं में काम किया है और उस दौरान को मैंने बारीकी से समझा है। ये समझना पड़ता है कि कौन सा किरदार कैसे बोलेगा, कैसेउठेगा-बैठेगा।  हमारे यहां पता नहीं किसने ये गलतफहमी ला दी कि ये लीड एक्टर हैऔर ये कैरेक्टर एक्टर। अरे भाई लीड एक्टर भी तो एक कैरेक्टर ही होता है। कहना तो एक्टर और सपोर्टिंग एक्ट चाहिए। मेरी कोशिश हमेशा बनने की रहती है। 

आप बच्चों के शो में जज थे। कभी निगेटिव कमेंट करने से पहले मन में बच्चों की भावनाओं को लेकर डर रहा ?
-वुगी-वुगी शो १७ साल चला। हमने इस मामले में काफी बैलेंस रखा। हमेशा कोशिश रही कि किसी का इन्सल्ट न होने पाये। हमने जिसको भी शो में बुलाया, उन्हें प्यार और सम्मान दिया। अगर कभी निगेटिव बातें भी कहनी थी, तो हमने समझाने के अंदाज में कहा।

  आजकल माँ -बाप अपने सपने अपने बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। आपने तो नजदीक से देखा होगा। क्या कहेंगे ?
- ये बहुत डेंजरस सोच है। आपने बिल्कुल सही कहा कि आज मां-बाप अपने सपने अपने बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। आपको बताऊं आज ज्यादातर लोग चकाचौंध से चौंधियाए हुए हैं। वो ग्लैमर के आकर्षक में इतने फंस चुके हैं कि इसी कल्पना में जीने लगते हैं कि मेरा बेटा टीवी पर आएगा, एड में दिखेगा, उसे काफी फेम मिलेगी। कई बार मैंने देखा कि एक छोटी सी बच्ची आती है और किसी आइटम गर्ल की मूवमेंट करती है। मैं तो तुरंत वहीं टोक देता हूं कि यार ये इस बच्ची से क्या करवा रहे हो? इसका बचपना मत छीनो। 

हिंदी सिनेमा में आपने  लम्बा समय दिया है। कभी लगा कि यहाँ जो मुकाम आपका होना चाहिए था वो नहीं मिला ? 
- मैं बहुत कुछ कर सकता था, अभी भी काफी कर सकता हूं। लेकिन मुझे मौके नहीं मिले। इस फिल्म इंडस्ट्री में ९५ प्रतिशत किस्मत का सिक्का चलता है। सलमान खान की पहली फिल्म नहीं चली, लेकिन 'मैंने प्यार कियाÓ के हिट होने के बाद उनकी निकल पड़ी।अजय देवगन को देखकर कइयों ने कहा अरे यार ये हीरो के रूप में नहीं चलेगा।लेकिन उनकी फिल्म हिट हो गयी और वो आज कहां है ये सभी देख रहे हैं। हमारे देश में कई बहुत अच्छे कलाकार हैं, लेकिन उनकी किस्मत उनके साथ नहीं है, तो वो गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं। 'शोले' चल गई तो लोग शम्भा को भी जान गये। 

आपने कॉमेडी, मिमिक्री और स्टेज शो सहित क्षेत्रों में काम किया। आपके लिए आसान क्या है ? 
-मैं अपने आपको एंटरटेनर मानता हूं। आप मेरी फिल्मे देखकर मेरी रेंज जान जाएंगे। मुझे किसी भी रोल में डाल दीजिए मैं उसमें ढल जाऊंगा। मेरा अपने काम को लेकर एक कॉन्फिडेंस है, ओवर कॉन्फिडेंस नहीं। फिल्म चली ना चली, लेकिन मेरे काम पर किसी ने उंगली नहीं उठायी। 

आज की फिल्मों में बदलाव क्या देख रहे हैं ?
-हमारी फिल्में पहले सर्कस की तरह थी। जैसे एक जोकर, एक लड़का, एक लड़की, एक विलेन, एक घोड़ा एक फार्मूले की तरह आते थे। लेकिन आज फिल्मे कहानी के अनुसार चलने लगी हैं। पहले कॉमेडी अलग होती थी, परंतु आज कहानी का हिस्सा बनकर आ रही है। दूसरे आज विकी डोनर और मसान जैसी फिल्में चल रही हैं। लेकिन अभी हमारे यहां इनके लिए मार्केट नहीं बन पाया है। इसका कारण भी है। फिल्म एंटरटेनमेंट का माध्यम है। सबके रोजमर्रा की जिंदगी में समस्याएं हैं, हर जगह तनाव है। लोग इससे बचकर फिल्म में एक खूबसूरत मायावी दुनिया देखने जाते हैं, जिसमें थोड़ी देर के लिए वो अपना गम छोड़कर उसी में खो जाते हैं। अगर फिल्म में भी वही भूख और पीड़ा दिखे तो वो पैसे खर्ज कर क्यों देखें। वो तो आस-पास ही पड़ा है। 

आपका राजनीति में जाना क्या भावनाओं का क्षणिक आवेग था या अब भी जा सकते हैं ?
-मुझे लगा कि एक आदमी सच्चाई के साथ सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठा रहा है, तो मुझे उसका साथ देना चाहिए इस लिए चुनाव लड़ गया। वहां मेरा मुकाबला भाजपा के राजनाथ सिंह, कांग्रेस की रीता बहुगुणा और सपा एवं बसपा जैसी मजबूत पार्टियों से रहा। ऐेसे में मुझे जितने वोट मिले वो काफी मायने रखते हैं। क्योंकि एक तो मैं वहां अचानक गया था, दूसरे मेरी पार्टी भी नयी थी। अब मैं सीधे राजनीति में नहीं जाने वाला हूं। हां एक सपोर्टर के रूप में रहूंगा।    

Tuesday, October 20, 2015

बहाने पुकारे भइया ...

बहाने पुकारे भइया 
ले लूँ तेरी बलइया 
अपने हाथ 
चाहे जहाँ तू जाए 
वहां मेरी दुआएं 
होंगी साथ 
ज्योति फैलाये सूरज जब तक गगन से 
उतनी उमर तेरी माँगू किशन से 
सूरज पर ग्रहण आये 
तुझ पर वो भी न आये 
कोई घात
जीवन में हर पल ख़ुशी महक हो 
माथे चमकता विजय का तिलक हो 
प्रभु से विनती है मेरी 
कीर्ति हो जग में तेरी 
रातों रात  

Sunday, October 11, 2015

अब लोगों पर अंधविश्वासी की तरह भरोसा नहीं करती : ऋचा चड्ढा



क्या अब आपका संघर्ष खत्म हो गया है ?
- संषर्ष तो अब भी चल रहा है। बस उसका रूप बदल गया है।  पहले ऑटो से संघर्ष कर रही थी और अब अपनी गाड़ी से करती हूं। पहले फिल्म पाने के लिए भाग दौड़ कर रही थी, अब अपने काम को नया आयाम देने में श्रम लगा रही हूं। फिल्म इंडस्ट्री में होना मतलब लाइफ टाइम के लिए संघर्ष में होना है। इसलिए ऐसा नहीं कह सकती कि कुछ फिल्मों की सफलता और प्रशंसा के बाद मेरा संघर्ष खत्म हो गया है। यहां हर फ्राइडे के बाद करियर का भविष्य निर्धारित होता है।

आपकी पहचान टुकड़ों में हुई है। बीच के समय में हौसला कैसे बनाए रखा ?
- 'ओए लकी  लकी ओए' और 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' के बीच चार साल का गैप है। उसमें २००८ से २०१० तक का समय मेरे लिए काफी मुश्किलों भरा रहा। मेरे पास कोई काम नहीं था। उस दौरान मैंने अपने अंदर के कलाकार को जिंदा रखने के लिए थियेटर किये, नाटक किये। किसी काम को पाने का हौसला बनाये रखने के लिए सबसे जरूरी है कि उसमें आपकी रुचि लगातार बनी रहे। इसके अलावा आपकी हॉबिज और आपसे जुड़े लोगों की भी भूमिका महत्वपूर्ण होती है, जिससे आप निराशा में जाने से बच जाते हैं। मेरे मुश्किल दिनों में मेरे परिजनों का बड़ा सहयोग रहा। पैसे कम होने पर पैसे भेजे, मुझसे बातचीत में उन्हें कभी लगता था कि मैं  कुछ निराश हूं, तो वो मुंबई आ जाते थे।

'मैं और चाल्र्स' कैसी फिल्म है ?
- ये एक थ्रिलर फिल्म है। क्रिमिनल चाल्र्स की कहानी है कि कैसे वो लॉ स्टूडेंट मीरा की मदद से दो- चार कैदियों के साथ देश की सबसे सुरक्षित जेल तिहाड़ से भाग जाता है। उसके बाद पुलिसकर्मी अमोल चाल्र्स की जिंदगी में भाग दौड़ शुरू करता है। चाल्र्स गोवा में पकड़ा जाता है और फिर मुंबई में उसका सामना अमोल से होता है। इसमें यही दिखाया गया है कि कैसे घटनाओं की प्लाटिंग और उन्हें अनकवर किया गया है। मैं मीरा बनी हूं और चाल्र्स का किरदार रणदीप हुड्डा निभा रहे हैं।

ग्लैमर इंडस्ट्री में होकर भी ग्लैमरस हीरोइन की पहचान ना होने को लेकर कभी कसक होती है ?
- हां, कभी-कभी ये कसक उठती है। इसकी वजह ये है कि ग्लैमरस रोल की फिल्में करने के कारण आपके पास कमाई करने के कई रास्ते आ जाते हैं। कई शोज, अपियरेंस के मौके मिलते हैं। ऐसा नहीं है कि मैं ग्लैमरस रोल की फिल्में बिल्कुल ही नहीं कर रही हूं। लेकिन उसको लेकर बहुत बेचैन नहीं हुई जा रही हूं। 'मसान' की सफलता के बाद कई लोगों ने मुझसे पूछा कि आप बड़े बजट की कमर्शियल फिल्में क्योंनहीं करतीं। मैं उन सभी से कहना चाहती हूं कि 'मसान' जैसी मीनिंगफुल अच्छी फिल्में और करना चाहूंगी।

जब पहली बार अभिनेत्री बनने का ख्याल आया, तो क्यावो ग्लैमर का आकर्षण था ?
- बचपन से ही मुझे लग रहा था कि मैं अभिनेत्री बनने के लिए ही बनी हूं। मेरे मन में आकर्षण ग्लैमर को लेकर ना होकर सिनेमा को लेकर था कि वो कौन सी बात है, जो बनावटी होते हुए भी इतना असरदायी है। ये बच्चे से लेकर बड़े तक सभी जानते हैं कि जो पर्दे पर दिख रहा है, वह बनाया हुआ है। फिर भी सभी उससे जुड़ जाते हैं।


फिल्म इंडस्ट्री में कभी ठगे जाने का अहसास हुआ ?
— हां, ये अहसास कई तरह के हैं। जैसे कुछ लोगों ने कोई काम देने का भरोसा देकर लटकाए रखा, लेकिन वो कोरा आश्वासन ही साबित हुआ। स्ट्रगल के दिनों में ऐसे कटु अनुभन होते रहते हैं। लेकिन यही अहसास हमें परिपक्व बनाते हैं।
अब मैं लोगों पर अंधविश्वासी की तरह भरोसा नहीं करती हूं।

   

Friday, October 2, 2015

हमारा समाज भगोड़ा है : लव रंजन



2011 में आई फिल्म 'प्यार का पंचनामा' के जरिये लड़का -लड़की के आधुनिक संबंधों को लेकर एक नयी बहस की शुरुआत करने वाले निर्देशक लव रंजन 'प्यार का पंचनामा २' लेकर आ रहे हैं।  फिल्म के प्रमोशन के दौरान हुई मुलाकात में उन्होंने फिल्म और समाज सहित कई मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी।  प्रस्तुत है प्रमुख अंश -  

सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है जिसके लिए 'प्यार का पंचनामा २' देखनी चाहिए ?
- 'प्यार का पंचनाम' की खासियत यह है कि ये वो बात कहती है, जो कोई और नहीं कहता। आदमी औरतों को कैसे परेशान करता है, इस पर कई फिल्में बनी हैं। लेकिन महिलाएं किस तरह पुरुषों को तंग करती हैं इसे केवल 'प्यार का पंचनामा' दिखाती है। 'प्यार का पंचनामा २' पहले से ज्यादा मजेदार है। मैंने इसे बहुत संजीदगी के बजाय मजाक में दिखाया है कि भाई देखो ऐसा भी होता है। इसके किरदार लोगों को कनेक्ट करेंगे। फिल्म की घटनाएं देखकर हर एक को लगेगा कि हां यार मेरे साथ या मेरे दोस्त के साथ ऐसा ही हुआ है। मेरा दावा है कि आप हंसते रहेंगे और आपको पता नहीं चलेगा कि फिल्म कब खत्म हो गयी। आपकी कोई दोस्त होगी या बीवी होगी तो यह फिल्म दिखाकर यह बताने का मौका मिल जाएगा कि देखो ये कई सारे बातें हैं, जो मैं तुमसे नहीं कह पाता था। अब समझ भी जाओ और मुझे हैरान-परेशान करना छोड़ दो।

'प्यार का पंचनामा'  आने के बाद आपको महिला विरोधी कहा गया। कुछ कहना चाहेंगे ?
- माफी के साथ कहना चाहूंगा कि हमारा समाज जो है, वो एक भगोड़ा किस्म का समाज है। इससे ज्यादा भगोड़ा मैंने दुनिया में कहीं नहीं देखा। यह समाज किसी चुनौती पर बहस करने को तैयार होने के बजायअपनी सुविधानुसार रास्ता पकड़ निकल पड़ता है। मैंने एक बहस की शुरुआत की। मेरी दूसरी फिल्म 'आकाशवाणी' किसी ने नहीं देखी। वो तो पूरी तरह से लड़कियों के ऊपर थी कि पढ़ी-लिखी लड़कियां भी किस तरह मां-बाप के कहनेपर शादी कर लेती हैं। तब तो मुझे किसी ने फेमिनिस्ट, लड़कियों का शुभ चिंतक नहीं कहा। देखिये कोई भी फिल्मकार कल्पना से फिल्में बनाता है। ये उसका रचना पक्ष होता है। उसे किसी के निजी व्यक्तित्व से जोडऩा मैं सही नहीं मानता। मैं ऐसी बातों से विचलित नहीं होता। जो बातें पीढिय़ों से चली आ रही हैं, उसे टूटने में समय लगेगा। जैसे तराजू के एक पलड़े में कुछ पहले से रखा है और दूसरे को भी बराबर करने के लिए हम उसमें कुछ रखते हैं, तो वो एकाएक बराबर नहीं हो जाता। पहले वो झूलता है। मैं आशान्वित हू कि एक दिन ऐसा समय आएगा। क्योंकि समानता तो होनी ही चाहिए। 

'प्यार का पंचनामा'  से पार्ट २ में समानता और भिन्नता क्या है ?
- समानता सुर की है, आत्मा की है और मुद्दे की है। तीनों किरदार नये हैं और उनकी कहानियां भी अलग हैं। 'प्यार का पंचनामा' के मध्यांतर बाद मैं कुछ ज्यादा संजीदा हो गया था। लेकिन इस बार मैंने थोड़े हल्के तरीके सेमनोरंजक रूप से बातें कही है। ताकि किसी को कुछ चुभे नहीं। मैंने हंसते-हंसते सारी बातें कहने की कोशिश की है।

 पार्ट १ की बड़ी सफलता आज आपके लिए दबाव है या चुनौती ?
- उम्मीद है। उसका कारण है कि पार्ट वन जब आया था, तब कोई न तो मुझे जानता था और न ही उस फिल्म को। 'प्यार का पंचनामा' के रिलीज के बाद तुरंत लोग देखने भी नहीं आये। देखकर आये लोगों ने औरों के इसके बारे में बताया तब फिल्म लंबे समय तक थियेटरों में लगी रहकर हिट हुई। लेकिन इस बार लोग मुझे और 'प्यार का पंचनामा २' दोनों के बारे में जान गये हैं। लोगों में इसको लेकर उत्साह है, तो मैं यही कहूंगा कि मुझे उम्मीद है कि दर्शक ये फिल्म देखने जरूर आएंगे।
चार साल बाद 'प्यार का पंचनामा' का सिक्वल बनाने का कारण सफलता को लेकर कोई रिस्क से बचना तो नहीं रहा ? क्योंकि आप एक मजबूत आधार पर चल रहे हैं...
- ये बात पहले से ही थी। बस हमारा स्टैंड ये था कि हम बैक टु बैक नहीं बनाना चाहते थे। हम बीच में कुछ और बनाना चाहते थे।  इसमें चार क्यापांच साल भी लग सकते थे। फिल्म लाइन में सब कुछ आपके हाथ में नहीं होता। कई कारणों से काम लटक जाता है। सबसे जरूरी बात आपके पास स्क्रिप्ट होनी चाहिए और स्क्रिप्ट के बारे तो कोई निश्चित फार्मूला नहीं होता। यह ३० दिन में भी पूरा हो जाएगा और ६ महीने भी लग सकते हैं। ऐसे में जब तक आपके हाथ में पूरी तरह से तैयार स्क्रिप्ट नहीं आ जाती आप फिल्म बनाने के बारे में कैसे सोच सकते हैं। यही तो मुख्य आधार है। 

पार्ट वन की सफलता में उसके संवादों का बड़ा योगदान रहा। आप संवादों से दर्शकों को बांधने में ज्यादा यकीन करते हैं या सिचुएशन से प्रभावित करने में ?
- मेरा मानना है कि अगर आप दोनों में से किसी पर कम और ज्यादा ध्यान रखते हैं, तो आप फिल्म के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। यदि मैं सिर्फ संवादों से दर्शक को बांधने की कोशिश करुंगा, तो हो सकता है उन्हें हंसी आ जाए, लेकिन उससे असरदायी मनोरंजन नहीं हो सकता। आपको मजा संवादों से आता है, लेकिन कनेक्टिविटी सिचुएशन और किरदारों से आती है। इस लिए जैसे दर्शक को बांधने के लिए अच्छे संवाद की जरूरत है, उसी तरह उन्हें प्रभावित करने के लिए सिचुएशन भी महत्वपूर्ण है। अपवाद स्वरूप ऐसा हो जाता है कि अच्छी सिचुएशन औसत संवाद को संभाल लेती है और कभी संवाद इतने सटीक होते हैं कि अपनी रवानी में दर्शकों को बहा ले जाते हैं, जिससे सिचुएशन की कमी छिप जाती है।

आपकी सभी फिल्मों में कार्तिक और नुशरत रहे हैं। इन पर इतना भरोसा का कारण क्या है ?
- 'प्यार का पंचनामा' में तो ये दोनों भी अन्य छह कलाकारों की तरह मेरे कास्टिंग डायरेक्टर के जरिये आये थे। फिर उसके बाद इनके साथ एक कम्फर्ट लेबल आ गया। दोनों ही मेहनती और अच्छे कलाकार हैं। दोनों वक्त देने के लिए तैयार रहते हैं। मेरे लिए कमिटमेंट बहुत मायने रखता है। जो आप मेरे लिए वक्त दिये हैं, मै चाहता हूं कि बीच में आप उसमें कोई व्यवधान न डालें। टालमटोली या कामचोरी के बीच काम करना मेरे लिए मुश्किल हो जाएगा। सिर्फ ये ही नहीं बल्कि मेरे कैमरामैन, संगीतकार, एडिटर और कोरियाग्राफर भी नहीं बदले हैं। 

और प्रोड्यूसर भी । कैसा रिश्ता है उनके साथ ?
- सात साल पहले की बात है मैं और अभिषेक दोनों यंग थे। दोनों न्यूयार्क से लौटे थे। हमारी पहचान एक दोस्त की शादी में हुई थी। जहां तक रिश्ते की बात है, प्रोड्यूसर-डायरेक्टर की वही जोड़ी अच्छी हो सकती है जो लड़ाइयां झेल ले। हममें अब भी लड़ाई होती हैं, बस प्रकृति बदल गयी है। आज हम दोनों एक दूसरे की कमियां और खूबियां जानते हैं और उसी रूप में एक दूसरे को स्वीकार कर चुके हैं। काम के प्रतिईमानदारी दोनों की सेम है। बतौर प्रोड्यूसर अभिषेक पैसा कमाना चाहता है, लेकिन अच्छी फिल्म बनाकर और मैं एक ऐसी अच्छी फिल्म बनाना चाहता हूं, जो पैसा भी कमाये। अभिषेक की एक अच्छी बात बताऊं, कई बार इसके मना करने के बाद भी मैंने वो काम किया और गलत साबित हो गया। लेकिन ये बाद में मुझे ये जताने नहीं आया। तो इससे एक सम्मान और विश्वास का रिश्ता कायम हो जाता है। 

आज आप जो हैं, उसकी बुनियाद कब पड़ी ?
-(हंसते हुए) १९८१ में जब मैं पैदा हुआ। नौवीं कक्षा में था, जब राइटिंग में रुचि हुई और कविता, शेर लिखने की कोशिश करने लगा। मेरी मां भी डॉक्ट्रेट की हैं तो इस दिशा में घर में ही माहौल मिल गया और सपोर्ट भी मिलता रहा। दूसरे मैं फिल्में भी बहुत देखता था। शायद उसका भी असर है।