Wednesday, July 25, 2012

सीमित दायरे में भोजपुरी खलनायकों के बड़े कारनामें

सीमित दायरे में भोजपुरी खलनायकों के बड़े कारनामें
    फिल्म की कहानी पात्रों के लक्ष्य प्राप्ति के बीच आने वाले उलझाव और  टकराव के सहारे ही आगे बढ़ती है । उलझाव उत्पन्न करने वाले पात्र को ही खलनायक कहा जाता है । खलनायक फिल्म की कहानी में बदलती हुई घटनाओं के बीच प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पुल का काम करते हैं, जिससे  अलग-अलग होकर भी अगली घटना पहली घटना का परिणाम दिखती है । मोहन जी प्रसाद द्वारा निर्मित और रवि किशन -नगमा अभिनीत फिल्म च्पंडित जी बताई ना बियाह कब होईज् घटनाक्रमों में लंबे अन्तराल के बावजूद फिल्म के खलनायकी पक्ष के कारण ही दर्शकों को अंत तक बांधे रखने में सफल हो पाई । क्योंकि दर्शक भाई सहित रवि किशन और कुणाल सिंह पर खलनायक बृजेश त्रिपाठी के अत्याचारों के हिसाब की उम्मीद  लगाये बैठा रहता है । खलनायक का चरित्र चित्रण फिल्म की कहानी को धक्का देने के लिए ही किया जाता है । 
यदि फिल्मी कहानी को तीन भागों (प्रारंभ, मध्य और अन्त) में बांटकर देखा जाय तो मध्य भाग सबसे लम्बा और महत्वपूर्ण दिखाई देता है । यह भाग एक तरह से खलनायक के नाम रहता है, जिसमें उसी का अधिपत्य दिखाई देता है । उसकी कारस्तानियां नायक-नायिका के सामने एक के बाद एक परेशानियां उत्पन्न करती रहती हैं । फिल्म में खलनायक के अनैतिक -अमर्यादित कारनामें दर्शकों के मन में जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं । उसकी हरकतें एक साथ कई स्तरों पर फिल्म में अहम भूमिका निभाती हैं। एक तरफ उसके अमानवीय व्यवहार से फिल्म की कहानी को बिना बोझिल हुए विस्तार मिलता है, तो दूसरी तरफ खलनायक के कुचक्रों से बाहर निकलने की जद्दोजहद करते नायक के प्रति दर्शकों का संवेदनात्मक जुड़ाव भी होता रहता है । ऐसे में नायक का चरित्र निर्माण भी होने लगता है । खलनायक द्वारा उत्पन्न की गई अनेक मुसीबतों का सामना करते समय नायक-नायिका के कार्य -व्यवहार एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं । इस क्रम में नायक-नायिका दर्शकों के लिए  आम से खास बन जाते हैं ।
चूंकि भोजपुरी की संस्कृति ग्रामीण संस्कृति है। अत: इस भाषा की फिल्मों में ग्रामीण जीवन के सामाजिक और आर्थिक परिवेश की विभिन्न समस्याओं के मद्देनजर तानाशाह जमींदार और सूदखोर महाजन ही खलनायक के रूप में प्रस्तुत किये गये । अधिकांश भोजपुरी फिल्मों में थोड़े से हेरफेर के साथ खलनायकों के मिलते-जुलते किरदार ही मिलते हैं, जिससे दर्शकों को खल किरदारों की गतिविधि का अंदाजा आसानी से हो जाता है। ऐसे हालात में खलनायकों के सामने खुद को साबित करने की एक मुश्किल चुनौती खड़ी रहती है । भोजपुरी फिल्मों में कथानक ग्रामीण जीवन पर आधारित होने के कारण खलनायकी में ज्यादा प्रयोग की गुंजाइस नहीं रहती । यही कारण है कि खलनायक को प्रमुखता देते हुए यहां कभी कहानी नहीं लिखी गई, जिसके कारण भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में प्राण, अमजद खां, अमरीशपुरी और गुलशन ग्रोवर जैसा मुकाम कोई भोजपुरिया खलनायक नहीं बना पाया। भोजपुरी खलनायकों की हालत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि आज भोजपुरी फिल्मों की बाढ़ आने के बाद भी भोजपुरी समाज में बृजेश त्रिपाठी, अवधेश मिश्रा और संजय पाण्डेय को लगातार अच्छे अभिनय के बावजूद उचित सम्मान नहीं मिल पाया है । इसका प्रमुख कारण खलनायकों का कमजोर चरित्र चित्रण ही है । भोजपुरी खलनायकों की गुमनाम जिंदगी के लिए काफी हद तक मीडिया भी जिम्मेदार है । क्योंकि कलाकारों की नाम सहित पहचान सबसे ज्यादा मीडिया के माध्यम से ही होती है। भोजपुरी क्षेत्र के हिन्दी अखबार एक तो भोजपुरी फिल्मों को बहुत कम जगह देते हैं, दूसरे वे केवल भोजपुरी फिल्मों के नायक-नायिका तक ही सीमित रहते हैं। भोजपुरी फिल्मों के खलनायकों को वे हमेशा अपने लिए अनुपयोगी ही समझते रहे हैं ।
किरदार के सीमित क्षेत्र और तमाम उपेक्षाओं के बाद भी भोजपुरिया खलनायक जब भी मौका मिला है अपने अभिनय का लोहा मनवाते रहे हैं। खलनायक द्वारा पूरी फिल्म की घटनाओं को एक धागे में पिरोने का स्पष्ट प्रमाण फिल्म च्प्रतिज्ञाज् में मिलता है । फिल्म में कुणाल सिंह , पवन सिंह और दिनेशलाल यादव निरहुआ की अलग-अलग बिखरी हुई कहानी फिल्म के खलनायक अवधेश मिश्रा की हतकतों के कारण ही एक दूसरे से जुड़ी कड़ी बन पाती है । च्देवरा बड़ा सतावेलाज् में जबर्दस्ती खलनायकों के लिए डाली गई सी लगती कहानी में भी अवधेश मिश्रा, बृजेश त्रिपाठी और संजय पाण्डेय अच्छा काम कर दिखाते हैं । फलस्वरूप यह फिल्म काफी अच्छा धन्धा करने में सफल हो पायी। राजकुमार आर. पाण्डेय निर्देशित फिल्म च्दीवानाज् अपनी महबूबा की राह देखते नायक की बेहद धीमी शुरुआत के साथ शुरू होती है । लेकिन फिल्म के खलनायक संजय पाण्डेय के सीन के साथ इस सुस्त कहानी को जोरदार धक्का लगता है और फिल्म दर्शकों को अपने साथ लिए तेजी से आगे बढऩे लगती है।
भोजपुरी फिल्मों के पहले दौर में परम्परा, परिस्थिति और चारित्रिक विशेषता को ही प्रमुखता देते हुए घटनाओं का ताना बाना बुना गया । यह क्रम आज वर्तमान समय में भी जारी है । फिल्म में खलनायक के बजाय नायक के चारित्रक पक्ष से कहानी में मोड़ लाने का एक अच्छा उदाहरण हमें उदित नारायण और दीपा नारायण की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म च्कब होई गवना हमारज् में मिलता है। फिल्म के नायक रवि किशन की हीरो बनने की इच्छा ही कहानी में तनाव उत्पन्न करती है । इस फिल्म में छपरा के एक खुशहाल संपन्न परिवार का लड़का बृज भूषण (रवि किशन)माता- पिता से चुपके अपनी दादी से 10 लाख रुपये लेकर अपने गांव के साथी युवक के साथ भागकर हीरो बनने मुंबई चला जाता है । नायक का यही कदम कहानी को एक रोचक मोड़ देता है । क्या नायक अपनी मनोकामना पूरी करने में सफल हो पाता है? क्या उसके मायूस परिवार वालों का इंतजार खत्म होगा? इसी उत्सुकता में दर्शक फिल्म की रवानी में बहता रहता है । आज का भोजपुरिया समाज पहले से काफी परिवर्तित और ज्यादा विकसित है । ऐसे में भोजीवुड में अब ऐसे दक्ष लेखकों की जरूरत है, जो परंपरागत कहानियों से ऊपर उठकर च्शोलेज् के गब्बर सिंह और च्मिस्टर इंडियाज् के मोगेम्बो जैसे कुछ कालजयी पात्रों की रचना कर सकें। लेखक सलीम-जावेद की जोड़ी की रचनाधर्मिता का ही कमाल था कि अमजद खान और अमरीशपुरी द्वारा खलनायक के रूप में बोले गये संवाद और उनके लहजे का आज भी विज्ञापन सहित अन्य विधाओं में तरह-तरह से अनुकरण किया जा रहा है।         
                                        - अश्वनी  कुमार राय   

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